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जानकी प्रसाद द्विवेदी ने 'कातन्त्र व्याकरण विमर्श' ग्रन्थ में इस पर व्यापक प्रकाश डाला है। इसकी बहुत-सी पाण्डुलिपियाँ शारदालिपि में है; जिनको प्रकाश में लाने के लिये उनकी सम्पादन व्यवस्था अत्यन्त आवश्यक है। आशा है कि प्रात: स्मरणीय पूज्यपाद स्वामी विद्यानन्द जी के आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन में डॉ० सुदीप जैन इस दिशा में आवश्यक ढंग से प्रयासरत रहेंगे।
-डॉ० रामसागर मिश्र, लखनऊ (उ०प्र०) ** ● आपके द्वारा सम्पादित 'प्राकृतविद्या' नियमित रूप से प्राप्त होती है। इस पत्रिका की प्रशंसा जितनी की जाये वह कम है। सभी दृष्टियों से यह अनुपम है। क्यों न हो, इसमें राष्ट्रसंत आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज जी का आशीर्वाद एवं संरक्षण जो है। विद्वानों, जिज्ञासुओं के पास यह पत्रिका आप पहुँचा भी रहे हैं, यह भी विशेष ध्यातव्य है। इससे प्रसिद्ध विद्वान् रंगनाथन के वे सूत्र सार्थक होते हैं, जिनमें कहा गया है कि प्रत्येक पाठक को पुस्तक मिलना चाहिए तथा प्रत्येक पुस्तक को पाठक मिलना चाहिये।' आशा है भविष्य में यह और प्रगति करेगी तथा विश्व में प्राकृतविद्या' प्रमुख-पत्रिका का गौरव प्राप्त करेगी।
-विजय कुमार जैन, गोमतीनगर, लखनऊ ** © 'प्राकृतविद्या' में आपके द्वारा लिखित लेख (अक्तूबर-दिसम्बर '99) के अंक में 'ग्रामे ग्रामे कालापर्क' पढ़ा। पढ़कर मन को बहुत प्रसन्नता हुई। आपने धर्म का इतिहास बताया। ऐसी पत्रिकाओं (जैनसंदेश) एवं लेखकों पर कृपया नियंत्रण लगाए, जिन्हें हमारे धर्म का इतिहास ना मालूम हो। बड़ी प्रसन्नता हुई कि आप जैसे नवयुवक विद्वानों के हृदय में अपने धर्म के प्रति बहुमान है। -आजाद कुमार जैन, जबलपुर (म०प्र०) **
® Thanks for sending m 'Prakrit Vidhya' October-December 1999 issue. The magazine gives the details study materials on Prait and the subjects related to Jainology. Your editorial 'ग्राम-ग्रामे कालापकं' gives the various troofs on “Jain Antiquity'. - T.R. Jodatti, Dharwad **
© 'प्राकृतविद्या' का वर्ष 11, अंक 3, प्राप्त हुआ। पत्रिका का प्रत्येक आलेख पठनीय एवं ज्ञानवर्द्धक होता है। अत: पत्रिका की प्रतीक्षा बनी रहती है।
सम्पादकीय अत्यंत तर्कसंगत एवं विद्वत्तापूर्ण है जिसमें 'दिगम्बर जैन प्रतिमाओं एवं दिगम्बर जैन ग्रन्थों' की प्राचीनता को अनेक प्रमाणों द्वारा सिद्ध किया गया है। एतदर्श धन्यवाद। इसीप्रकार पुस्तक-समीक्षा के अन्तर्गत 'जिनागमों की मूलभाषा की समीक्षा' अत्यंत विद्वत्तापूर्ण है। वैसे तो पत्रिका की सभी सामग्री पठनीय एवं उच्चस्तरीय है, फिर भी श्री कुन्दनलाल जी का आलेख दवनिर्मित जैन स्तूप', क्रोधादि-कषायों का विवरण, प्रो० (डॉ०) विद्यावती का आलेख 'श्रमण संस्कृति का प्रमुख केन्द्र कारंजा' तथा स्नेहलता जैन का लेख जिनपरम्परा के उद्घोषक महाकवि स्वयंभू' मुझे अच्छे लगे। एक सर्वांग सुन्दर, उत्कृष्ट पत्रिका प्रकाशन के लिए आपको धन्यवाद ।
-लाल चन्द्र जैन ‘राकेश', गंजबासौदा, (म०प्र०) ** 0 प्राकृतविद्या' का अक्तूबर-दिसम्बर 1999 ई० का अंक प्राप्त हुआ। इस अंक की
प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000
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