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________________ अभिमत 0 प्राकृतविद्या के अक्तूबर-दिसम्बर '99 अंक में 'ग्रामे-ग्रामे कालापक....'' शीर्षक से जैनाचार्य श्रीमच्छर्ववर्म लिखित 'कातन्त्र व्याकरण' की लोकप्रियता प्रकट होती है। कातन्त्र व्याकरण का वर्तमान स्वरूप अत्यन्त प्राचीन है। तथा जनमानस में इसके प्रथम सूत्र 'ओं नम: सिद्धम्' का स्वरूप 'ओनामासीधम' बन गया। कभी इसका प्रचार अखिल भारतीय स्तर पर रहा। यह व्याकरण कौमार-व्याकरण' के नाम से भी प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि भगवान् ऋषभदेव ने अपनी पुत्री कुमारी ब्राह्मी के अनुरोध पर उन्हें व्याकरण सिखाने के उद्देश्य से जिस व्याकरण को प्रस्तुत किया, कालान्तर में "कुमार्याः आगतं, प्राप्तं, प्रचारितं वा व्याकरणं कौमार-व्याकरणम्” के नाम से प्रसिद्ध हुआ तथा पठन-पाठन में प्रचलित हुआ तथा इसका स्वरूप व्यापक होकर भी कुछ समय के लिये अव्यवस्थित हो गया। कहीं पर एक वाक्य उद्धृत है कि “आ कुमारं यश: पाणिनेः” अर्थात् 'कौमार व्याकरण' के प्रारम्भ तक ही पाणिनि-व्याकरण का वर्चस्व रहा। इसी कौमार व्याकरण' के सूत्रों को सुव्यवस्थित कर आचार्य शर्ववर्म ने इसे 'कातन्त्र व्याकरण' के नाम से प्रस्तुत किया तथा ईषदर्थ में 'का' प्रत्यय होकर 'ईषत् तन्त्रम् कातन्त्रम्' ऐसी व्युत्पत्ति के आधार पर कातन्त्र' शब्द चरितार्थ हुआ। अत: यह निर्विवाद है कि कातन्त्र व्याकरण अतीत के किसी महातन्त्र का लघु संस्करण है। ऐसा प्रतीत होता है कि जैनाचार्यों ने जनभाषा में विखरित भगवान् महावीर की वाणी को संस्कृत भाषा में सुव्यवस्थित करने के लिये ही अत्यन्त सरल एवं संक्षिप्त ढंग से व्याकरण के नियमों को सिखाने के लिये ही इसका प्रचार किया। दक्षिण भारत पूना के डेकन कॉलेज' में प्राप्त एक हस्तलेख वाले ग्रन्थ में एक श्लोक "छान्दस: स्वल्पमतय: शास्त्रान्तर-रताश्च ये। वणिक् सस्यादि संसक्ता लोकयात्रादिषु स्थिताः ।। ईश्वरा: व्याधिनिरता: तथालस्ययुताश्च ये। तेषां क्षिप्रं प्रबोधार्थमनेकार्थं कालापकम् ।।" -(सिस्टम ऑफ संस्कृत ग्रामर, वेलवल्कर) इस आधार पर कहा जा सकता है कि जो 'छान्द्स शास्त्र' पढ़ना चाहते है, मन्दमति वाले हैं, अन्य शास्त्र को पढ़ना चाहते हैं, व्यापारी हैं, कृषक हैं, यायावर हैं, राजा लोग हैं, व्याधिग्रस्त हैं, आलस्ययुक्त हैं, इन सब को शीघ्र ज्ञान करानेवाला यह व्याकरण है। डॉ० 40 96 प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000
SR No.521361
Book TitlePrakrit Vidya 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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