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________________ जैनदर्शनानुसार गर्भस्थ शिशु की संवेदनशक्ति और विज्ञान की अवधारणा -श्रीमती अमिता जैन __वर्तमान में महिलायें मातृत्व के स्वरूप को जिस तरह से गरिमाहीन करने लगीं हैं तथा संस्कारों के प्रति असावधान रहने लगीं हैं; उन्हें पारम्परिक मान्यताओं एवं आधुनिक वैज्ञानिक प्ररूपणाओं के समवेत आलोक में इसकी गरिमा का बोध करने तथा इस विषय में पर्याप्त सावधानी बरतने का स्पष्ट संकेत प्रस्तुत आलेख में किया गया है। विदुषी लेखिका ने इस बारे में सप्रमाण जानकारी तो प्रस्तुत की ही है, सावधानीपूर्वक संकेत भी किये हैं कि इस बारे में हमें कहाँ कैसी सावधानी रखनी है। आशा है आधुनिक पीढ़ी की असंयमित प्रवृत्ति से बढ़े गलत प्रयोगों के लिए यह आलेख पर्याप्त सावधान तो करेगा ही, उन्हें सभी जानकारी के द्वारा मन:परिवर्तन करके अपने संस्कारों एवं परम्परा के प्रति विनम्र एवं जागरुक बनायेगा। -सम्पादक जैनदर्शन में न केवल तत्त्वज्ञान का सूक्ष्म निरूपण किया गया है, अपितु अनेकों ऐसे निरूपण भी मिलते हैं, जिनके बारे में विज्ञान पहिले मान्यता नहीं देता था और अब स्वीकृति देने लगा है। ऐसे ही प्रकरणों में एक प्रकरण है कि क्या जन्म के पूर्व गर्भस्थ शिश का मस्तिष्क इतना विकसित होता है कि वह प्रतिक्रियाओं की अभिव्यक्ति कर सके? जैनशास्त्रों में इस बात की स्वीकृति दी गयी है। क्योंकि इसमें मनुष्य के शिशु की शरीर पर्याप्तिपूर्ण होने के बाद उसे संज्ञी पंचेन्द्रिय ही माना है। तथा संज्ञी जीव की चेतना इतनी जागृत होती है कि वह विचारपूर्वक हर्ष, विषाद, आक्रोश आदि प्रतिक्रियाओं को अभिव्यक्त कर सके। भले ही वह स्थानाभाव एवं सामर्थ्याभाव से तदनुरूप कोई विशेष शारीरिक प्रतिक्रिया नहीं कर पाता है, फिर भी वह मानसिक तरंगों के रूप में तथा यथासंभव शारीरिक हलन-चलन द्वारा अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर ही देता है। जैनाचार्य पार्श्वदेव ने इस विषय में निम्नानुसार उल्लेख किया है"शरीरः पिण्ड इत्युक्त: तत: पिण्डो निरूप्यते, शुक्लरक्ताम्बुना सिक्तं चैतन्यबीजमादिमम् ।। एकीभूतं तथा काले यथाकालेऽवरोहति, एकरात्रेण कललं पञ्चरात्रेण बुद्बुदम् ।। शोणितं दशरात्रेण मांसपेशी चतुर्दशे, घनमांसञ्च विंशाहले गर्भस्थो वर्द्धते क्रमात् ।। पञ्चविंशतिपूर्णैश्च पलं सर्वांकुरायते, मासेनैकेन पूर्णेन त्वञ्चत्वादीनि धारयेत् ।। प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000 0069
SR No.521361
Book TitlePrakrit Vidya 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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