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________________ वीतरागी - देव- शास्त्र - गुरु का सान्निध्य विशेषतः उपलब्ध कराता है। साथ ही जो धन उसे मिलता है, उसका उपयोग दानादि सत्कार्यों में ही मुख्यतः होता है। जबकि मिथ्यादृष्टि का पुण्य धन प्राप्ति में तो फलित होता है, किन्तु वह विषय-वासनाओं की पूर्ति, परिग्रह का संचय एवं नाना प्रकार के तनावों व झगड़ों की उत्पत्ति में चरितार्थ होता है। अत: ऐसे पुण्य का निषेध करते हुये जैनाचार्य लिखते हैं— “ पुण्णेण होइ विहवो, विहवेण मओ मएण मइमोहो । मइमोहेण य पावं, तम्हा पुण्णो वि वज्जेओ ।।” - (तिलोयपण्णत्ति, 9/52 ) अर्थ:- पुण्य से वैभव (धनसम्पत्ति आदि) की प्राप्ति होती है, वैभव से अभिमान उत्पन्न होता है, अभिमान के कारण बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है । भ्रष्ट - बुद्धि से नियम से (ऐसे कार्य होते हैं, जिनके फलस्वरूप ) दुर्गति के कारण पापभाव की प्राप्ति होती है । अत: ऐसा पुण्य वर्जित कहा गया है, छोड़ने योग्य है। यदि जैनाचार्यों के द्वारा प्रतिपादित अहिंसक अर्थशास्त्र को अपनाया जाये, तो अपराधों पर नियंत्रण, राष्ट्र की उन्नति, मानसिक शांति एवं पारस्परिक सौहार्द का प्रतिफल नियमतः प्राप्त होगा। अतः उक्त दृष्टियों से व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र के हित में अहिंसक अर्थशास्त्र को अपनाया जाये, तो विश्व में शांति एवं समृद्धि का प्रसार होगा तथा 'अर्थ' का अनर्थकारी प्रतिफलन रुक सकेगा । 'अर्थशास्त्र' के प्रणेता की अर्थ-दृष्टि सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्य में यूनान का राजदूत मेगास्थनीज़ आया और वह अपने परिचयपत्र आदि प्रस्तुत करने साम्राज्य के महामात्य चाणक्य के पास पहुँचा । महामात्य चाणक्य एक साधारण-सी झोपड़ी में बैठकर कार्य कर रहे थे । मेगास्थनीज़ ने वहाँ पहुँचकर ससम्मान अपना परिचयपत्र एवं आवश्यक सामग्री प्रस्तुत की । औपचारिकता पूर्ति के उपरान्त जब मेगास्थनीज़ वापस लौटने लगा, तो आचार्य चाणक्य ने जलते हुये दीपक को बुझाकर दूसरा दीप जला लिया। यह देखकर मेगास्थनीज़ वापस लौटा और विनयभाव से पूछा कि “श्रीमान् ! आपने ऐसा क्यों किया?" तो आचार्य चाणक्य बोले कि “पहिले वाले दीप में सरकारी तेल जलता है। जब तक मैं सरकारी कार्य कर रहा था, उस दीप को प्रज्वलित किये रहा। अब मैं निजी कार्य कर रहा हूँ, अत: सरकारी खर्चवाला दीप बुझाकर निजी खर्चवाला दीप जला लिया है। यदि मैं इतनी सावधानी नहीं रखूँगा, तो मेरे चरित्र में तो दोष लगेगा ही; अन्य सारे कर्मचारी भी सरकारी संसाधनों का उपयोग निजी कार्यों के लिए करने लगेंगे। तब यह राष्ट्र उन्नति कैसे कर सकेगा, जब यहाँ रक्षक ही भक्षक बन जायेगा, बाड़ ही खेत को खाने लगेगी?” आज के सन्दर्भ में यह घटनाक्रम गम्भीरता से मननीय एवं अनुकरणीय है। ** ☐☐ 68 प्राकृतविद्या�जनवरी-मार्च 2000
SR No.521361
Book TitlePrakrit Vidya 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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