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________________ इष्ट प्रार्थना 'क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपाल: । काले काले च वृष्टिं वितरतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम् ।।' दुर्भिक्षं चौरमारि: क्षणमपि जगतां मा स्म भूज्जीवलोके। जैनेन्द्रं धर्मचक्र प्रसरतु सततं सर्वसौख्य-प्रदायि ।। अर्थ:—सम्पूर्ण प्रजाओं का कल्याण हो, शक्तिशाली धर्मात्मा भूमिपाल (शासन, राज्य में) प्रभावशील रहें। समय-समय पर इन्द्र (मेघ) भली प्रकार यथोचित, वर्षा करें, व्याधियों का नाश हो। दुष्काल, चोर और महामारी जगत् को कष्ट देने के लिए क्षण-भर न हों और सबको सुख प्रदान करनेवाला तीर्थंकर वृषभादि का जिनशासन और 'धर्मचक्र' विश्व में निरन्तर प्रभावशील रहे। गो-वध : कैसा अर्थशास्त्र? ____ आज के दिग्भ्रान्त नायकों ने राष्ट्र को अशुचिता के हाथ बेच दिया है। उदर-भरण के लिए वैदेशिक अन्न का आयात करने पर भी उन्हें मत्स्य-मुर्गी-पालन में राष्ट्रीय क्षुधा की तृप्ति दिखायी देती है, विदेशी-मुद्रा अर्जित करने के लिए गोहत्या आवश्यक प्रतीत होती है। सुभाषित के समान मधुर तथा साधु के समान निर्दोष गौ को मारकर गोपालक गोपालकृष्ण के राष्ट्रीय सहोदर और महावीर भगवान् के अहिंसक देश के प्रतिनिधि व्यापारी किस अन्ध-पातक के अतल-गहर में गिरे जा रहे हैं? यह वक्तव्य क्या जाग्रतप्रबोध मात्र नहीं है! जिह्वा-लोलुपता के शिकार मांस-में-मांस की आहूति दे रहे. हैं। यह शरीर, जिसमें आत्मा का निवास है, जिसके सहयोग से देवत्व और उससे उत्कृष्ट अमर विभूतिपद मिल सकता है, विवेकहीन हो कर उन दुर्गन्धियों के ढेर का चक्कर लगा रहा है, जिन्हें देखकर भी घृणा होती है। संस्कारों के जहाँ संकीर्तन होते हैं, पवित्रता के घण्टे गूंजते हैं, धर्म के दस विभूति-चरणों को जहाँ हृदयंगम किया जाता है, जहाँ के लोग आज भी सात्त्विकता के पक्ष में है, मुनियों, महर्षियों का वैयावृत्त्य जिन्हें प्रसन्न करता है, वहाँ रौरव नरक का दृश्य उपस्थित करनेवाले बूचड़खाने अन्न की कमी के नाम पर, मुद्रास्फीति की दुहाई दे कर और जिह्वा की खोटी माँग से लाचार हो कर चलाये जायें, वहाँ के पाप को गंगा की धारा, अकलंक आचार्य का दिग्विजय और मुनि-महर्षियों का धर्म-प्रवचन कितना प्रक्षालित कर सकता है? आत्मज्ञान की महिमा __ "तातें आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान भी कार्यकारी नाहीं। या प्रकार सम्यग्ज्ञान के अर्थि जैनशास्त्रनिका अभ्यास करै है, तो भी याके सम्यग्ज्ञान नाहीं।" —(मोक्षमार्ग प्रकाशक, 7, पृष्ठ 349) ** 00 50 प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000
SR No.521361
Book TitlePrakrit Vidya 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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