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________________ उसका ज्ञानदान देने के कारण उसी पुत्री के नाम पर उक्त तन्त्र का संक्षिप्त नाम कौमार' तथा लिपि का नाम 'ब्राह्मी' रखा गया। कुछ विद्वानों को इस विषय में शंका हो सकती है कि शर्ववर्म क्या दिगम्बर जैनाचार्य थे? गवेषकों ने उसकी भी खोज की है। उन्होंने सर्वप्रथम एक साक्ष्य के रूप में कातन्त्ररूपमाला' के लेखक भावसेन त्रैविद्य का उदाहरण प्रस्तुत किया है, जिसमें स्पष्ट कहा गया है कि"श्रीमच्छर्ववर्मजैनाचार्यविरचितं कातन्त्रव्याकरणं।" अर्थात् कातन्त्र-व्याकरण के लेखक शर्ववर्म जैनाचार्य थे। उनके दिगम्बर-परम्परा के होने के समर्थ प्रमाण जैनेतर-स्रोतों से भी मिल जाते हैं। ___ पतंजलि ने अपने महाभाष्य में स्पष्ट लिखा है कि यह कातन्त्र अथवा कलाप-तन्त्र, (कलाप अर्थात्) मयूरपिच्छी धारण करनेवाले के द्वारा लिखा गया है (कलापिना प्रोक्तमधीयते कालापस्तेषामाम्नाय: कालापकम्) और यह सर्वविदित है कि चूँकि मयूर-पिच्छी संसार भर की साधु-संस्थाओं में से केवल दिगम्बर-पंथी जैनाचार्यों के लिए ही आगम ग्रन्थों में अनिवार्य मानी गयी है और वे ही उसे अपनी संयम-चर्या के प्रतीक के रूप में अनिवार्य रूप से अपने पास रखते हैं। इसका समर्थन एक अन्य जैनेतर-स्रोत भी करता है। विष्णुपुराण (3/8) में कहा गया है कि- “ततो दिगम्बरो मुण्डो बर्हिपिच्छिधरो द्विजः।" (यहाँ पर मुण्डो का अर्थ केशलुचुक तथा द्विज: का अर्थ “दो जन्मवाला अर्थात् दीक्षा-पूर्व एवं दीक्षा के बाद वाला अर्थ" लिया गया है।) उसी 'बर्हि' अर्थात् 'मयूर-पंख' पिच्छीधारी दिगम्बराचार्य के द्वारा लिखित होने के कारण ही वह ग्रन्थ कलाप' या 'कालापक' (अथवा कातन्त्र) के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अत: उक्त साक्ष्यों से यह निश्चित हो जाता है कि उक्त ग्रन्थ के लेखक शर्ववर्म दिगम्बर जैनाचार्य थे। शर्ववर्म कहाँ के रहनेवाले थे, इसके विषय में अभी तक कोई जानकारी नहीं मिल सकती है। किन्तु 'वर्म' उपाधि से प्रतीत होता है कि वे दाक्षिणात्य, विशेष रूप से कर्नाटक अथवा तमिलनाडु के निवासी रहे होंगे, क्योंकि वहाँ के निवासियों के नामों के साथ वर्म, वर्मा अथवा वर्मन् शब्द संयुक्त रूप से मिलता है। यथा-विष्णदेववर्मन. कीत्तिदववर्मन, मदनदेववर्मन् आदि। आचार्य समन्तभद्र का भी पूर्व नाम शान्तिवर्मा था। यह जाति अथवा गोत्र या विशेषण सम्भवत: उन्हें परम्परा से प्राप्त होता रहा। इतिहास साक्षी है कि ये 'वर्मन्' या 'वर्म' नामधारी व्यक्ति इतने बुद्धिसम्पन्न एवं शक्ति-सम्पन्न थे कि दक्षिण-पूर्व एशिया तक इनका प्रभाव विस्तृत था। बोर्नियो के एक संस्कृतज्ञ प्रशासक का नाम 'मूलवर्म' या 'मूलवर्मन्' था, जिसका संस्कृत-शिलालेख इतिहास-प्रसिद्ध है। इंडोनेशिया में दसवीं सदी में कलाप' के नाम पर नगर या मन्दिर बनाने की परम्परा के उल्लेख मिलते हैं कातन्त्र-व्याकरण की लोकप्रियता जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, कोई भी ग्रन्थ, पन्थ या सम्प्रदाय के नाम पर 00 26 प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000
SR No.521361
Book TitlePrakrit Vidya 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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