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के बौद्धिक विकास में जिसने चमत्कारी सहायता की और इनसे भी आगे बढ़कर, जिसने सामाजिक सौहार्द एवं भारत की राष्ट्रिय एकता तथा अखण्डता का युग-सन्देश दिया। वस्तुत: यह था— जैन आदर्शों, जैन सांस्कृतिक-वैभव तथा उसके प्रातिम-विकास का एक अनुपम आदर्श उदाहरण, जिसका शानदार प्रतीक बना कातन्त्र-व्याकरण' ।
- आचार्य भावसेन 'विद्य' (त्रैविद्य अर्थात् आगमविद्, शास्त्रविद् एवं भाषाविद्) ने 'कातन्त्र-व्याकरण' के विषय में लिखा है कि "उसका प्रवचन मूलत: आद्य तीर्थंकर ऋषभदेव ने किया था, जिसका संक्षिप्त सार परम्परा-प्राप्त ज्ञान के आधार पर आचार्य शर्ववर्म ने सूत्र-शैली में तैयार किया था।" ___ कातन्त्र-व्याकरणकार शर्ववर्म का जीवनवृत्त अज्ञात है। रचनाकाल का भी पता नहीं चलता। 'कथासरित्सागर' के अनुसार बे राजा सातवाहन या शालिवाहन के समकालीन सिद्ध होते हैं। किन्तु व्याकरण-साहित्य के कुछ जैनेतर इतिहासकारों ने विविध साक्ष्यों के आधार पर उनके रचनाकाल पर बहुआयामी गम्भीर विचार किया है। पं० भगवद्दत्त वेदालंकार ने शर्ववर्म का रचनाकाल विक्रम-पूर्व 500 वर्ष स्वीकार किया है, जबकि पं० युधिष्ठिर मीमांसक ने महर्षि पतंजलि से लगभग 1500 वर्ष पूर्व का माना है और उसके प्रमाण में उन्होंने अपने महाभाष्य में उल्लिखित कालापक' (अर्थात् कातन्त्र-व्याकरण) की चर्चा की है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि शर्ववर्म महर्षि पतंजलि के भी पूर्ववर्ती थे। पतंजलि का समय ई०पू० लगभग चतुर्थ सदी माना गया है।
उन्होंने (पतंजलि ने अपने समय में कालापक' अर्थात् 'कातन्त्र-व्याकरण' का प्रभाव साक्षात् देखा था और प्रभावित होकर अपने 'महाभाष्य' (सूत्र 1671) में स्पष्ट लिखा है कि 'ग्राम-ग्राम, नगर-नगर में सभी सम्प्रदायों में उसका अध्ययन कराया जाता है'
"ग्रामे-ग्रामे कालपकं काठकं च प्रोच्यते।" कातन्त्र के अन्य नाम
पतंजलि द्वारा प्रयुक्त कालापक' के अतिरिक्त कातन्त्र' के अन्य नामों में कलाप, कौमार तथा शार्ववार्मिक नाम भी प्रसिद्ध रहे हैं। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा प्रदत्त महिलाओं एवं पुरुषों के लिए क्रमश: 64 एवं 74 (चतुःषष्टिः कला: स्त्रीणां ताश्चतुःसप्ततिर्नृणाम्) प्रकार की कलाओं के विज्ञान का सूचक या संग्रह होने के कारण उसका नाम 'कालापक' और इसी का संक्षिप्त नाम 'कलाप' है। भाषाविज्ञान अथवा भाषातन्त्र का कलात्मक या रोचक-शैली में संक्षिप्त सुगम आख्यान होने के कारण उसका नाम कातन्त्र' भी पड़ा। किन्तु यह नाम परवर्ती प्रतीत होता है। जैनेतर विद्वानों की मान्यता के अनुसार 'काशकृत्स्नधातु-व्याख्यान' के एक सन्दर्भ के अनुसार यह ग्रन्थ कौमार-व्याकरण' के नाम से भी प्रसिद्ध था। किन्तु जैन मान्यता के अनुसार चूँकि ऋषभदेव ने अपनी कुमारी पुत्री ब्राह्मी के लिए 64 कलाओं, जिनमें से एक कला भाषाविज्ञान के साथ-साथ लिपि-सम्बन्धी भी थी,
प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000
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