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________________ प्रारम्भ होगा। नियमावली एवं ओवदन पत्र दिनांक 15 मार्च से 31 मार्च, 2000 तक अकादमी कार्यालय, दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी, सवाई रामसिंह रोड़, जयपुर-4 से प्राप्त करें। कार्यालय में आवेदन पत्र पहुँचने की अन्तिम तारीख 15 मई 2000 है। -डॉ० कमलचन्द सोगाणी, जयपुर (राज०) ** प्राकृतभाषा भारतीय संस्कृति की अन्तरात्मा है वाराणसी में 'इक्कीसवीं शती में प्राकृतभाषा एवं साहित्य : विकास की संभावनायें' विषय पर आयोजित परिचर्चा संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे प्रो० भोलाशंकर व्यास ने कहा कि “प्राकृतभाषा मात्र भाषा ही नहीं, बल्कि यह भारत की अन्तरात्मा और सम्पूर्ण सांस्कृतिक पहचान का माध्यम है। आज भी इसका प्राय: सभी भाषाओं पर प्रभाव विद्यमान है। अनेक प्रादेशिक और लोकभाषायें इसी से उद्भूत हैं; किन्तु विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में इसकी उपेक्षा असहनीय है। संस्कृत, हिन्दी आदि भाषा साहित्य के अध्ययन के साथ प्राकृत का अध्ययन अनिवार्य कर देना चाहिये।" प्रमुख वक्ता के रूप में प्रो० लक्ष्मीनारायण तिवारी ने कहा कि “प्राकृतभाषा में भारत की संस्कृति का हार्द समाया हुआ है। अत: इसकी रक्षा और विकास के लिये संघर्ष की आवश्यकता है, साथ ही शताब्दियों पूर्व स्थापित यह भ्रम टूटना चाहिये कि संस्कृत भाषा से प्राकृतभाषा की उत्पत्ति हुई। यथार्थ स्थिति यह है कि संस्कृत भी प्राकृत से व्युत्पन्न है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय जैसे विशाल और गौरवपूर्ण विश्वविद्यालय में प्राकृत अध्ययन का अभाव भी कम आश्चर्यकारी नहीं है।" ___ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष एवं अपभ्रंश भाषा के विख्यात् विद्वान् प्रो० शम्भूनाथ पाण्डे ने पं० हजारीप्रसाद द्विवेदी जी का संस्मरण सुनाते हुए कहा कि “पं० जी हमेशा कहा करते थे कि संस्कृतभाषा से मैं संस्कार प्राप्त करता हूँ; किन्तु प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं से मैं ओज-शक्ति तथा जीवन प्राप्त करता हूँ। उन्होंने कहा कि जिसे प्राकृत और अपभ्रंश भाषा का ज्ञान न हो, वह भारतीय संस्कृति को भी नहीं समझ सकता। प्राकृतभाषा मात्र एक भाषा ही नहीं है, अपितु वह प्राणधारा है; जिसमें संपूर्ण भारतीय संस्कृति समाहित है।" . संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में 'तुलनात्मक धर्मदर्शन विभाग' के विभागाध्यक्ष प्रो० राधेश्यामधर द्विवेदी ने कहा कि “संस्कृतभाषा के पूर्ण विकास के लिये प्राकृत और पाली का विकास आवश्यक है। भारतीय तथा प्रादेशिक सरकारों को इसका समुचित विकास करने का प्रयास करना चाहिये। इन्होंने आगे कहा किसी भाषा या संस्कृति-विशेष को महत्त्व दिये बिना सभी भाषाओं और संस्कृतियों का समान रूप से विकास करना चाहिये; अन्यथा हम संपूर्ण भारतीय संस्कृति को नहीं समझ सकेंगे।" मुख्य अतिथि पद से भारत कला भवन के पूर्वनिदेशक प्रो० रमेशचन्द्र शर्मा ने कहा प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000 00 107
SR No.521361
Book TitlePrakrit Vidya 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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