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________________ से सहस्रधारा पहुंचे और शीतल जल से स्नान किया। मध्याह्न देहरादून दिगम्बर जैन मन्दिर में दर्शनकर भोजन किया। सायं मोदीनगर में पुन: भ० श्री शान्तिनाथ की विशाल प्रतिमा के दर्शन किये। यहाँ से रात्रि में दिल्ली की ओर प्रस्थान कर दूसरे दिन दि० 2/6/98 को प्रात: 8.00 बजे जयपुर पहुंचे। ____ श्रद्धालु और धर्मप्रेमी भारतीय जनता ने सैकड़ों वर्षों पूर्व से उत्तराखण्ड की यात्रा की है। उस समय महीनों बीहड़ जंगलों में चलना पड़ता था। आज अच्छी सड़कें, यातायात, आवास, पेयजल आदि की व्यवस्था है। वे तीर्थ हमारी आध्यात्मिक प्रेरणा के केन्द्र तथा प्राकृतिक सौन्दर्य के आगार हैं। इन तीर्थधामों के चरों ओर ऊँचे-ऊँचे हिमानी शिखर, मनोरम घाटियाँ, छल-छलाती नदियाँ, पर्वतों से गिरनेवाले झरनों का मधुर संगीत, पक्षियों के दिव्यगान, ऊष्ण जलकुण्ड, मनोहर तालाब आदि प्रकृति के अनेक चामत्कारिक रूप यहाँ देखने को मिलते हैं। बद्रीनाथ की इस दुर्गम पर्वतीय यात्रा को सुगम बनाने में बुन्देलखण्ड यात्रा-संघ जयपुर के श्री प्रकाश चन्द जी तेरापंथी एवं श्री नेमिचन्द जी काला की सफल भूमिका रही है। यात्रा-मार्ग आवासादि का कष्ट अपने गन्तव्य पर पहुँच मन्तव्य को पाकर सुख में परिवर्तित हो जाता है। और पुन: नवीन यात्रा की प्रेरणा देता है – “क्लेश: फलेन हि पुनर्नवतां विधत्ते।” भारतीय संस्कृति में तीर्थयात्रा का ऐसा ही आध्यात्मिक आनन्द होता है। प्रकृति के शान्त-एकान्त-सौम्य वातावरण में आत्म-साधना का अप्रतिम सुख होता है। संकल्प शक्ति के धनी बालक सुरेन्द्र उपाध्ये (आचार्यश्री विद्यानन्द जी का गृहस्थावस्था का नाम) ने वैराग्य की प्रबलता होने पर आचार्यश्री महावीरकीर्ति जी के संघ में जाकर उनसे त्यागमार्ग पर आने के लिए अनुमति एवं दीक्षा माँगी, तो आचार्यश्री महावीरकीर्ति जी ने कहा कि “पहिले प्रतिमायें लो। तथा प्रतिमा भी तभी मिलेंगी, जब प्रतिदिन शास्त्र की एक गाथा या श्लोक याद करके सुनाओगे। प्रतिदिन नई गाथा, नया श्लोक याद करके सुनाये बिना आहार के लिए नहीं उठ सकोगे।" यह आज्ञा सविनय शिरोधार्य कर बालक सुरेन्द्र ने प्रतिमायें अंगीकार की तथा आगे क्षुल्लक दीक्षा देते समय भी आचार्यश्री महावीरकीर्ति जी ने यही नियम रखा। क्षुल्लक पार्श्वकीर्ति बनने पर भी आपने यह नियम अलंघ्य बनाये रखा तथा प्रतिदिन एक न एक नवीन गाथा या श्लोक याद कर लेने के बाद ही आपने आहार लिया। 0082 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99
SR No.521355
Book TitlePrakrit Vidya 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1999
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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