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________________ भारतीय शील एवं पातिव्रत्य के इतिहास का एक अत्यन्त रोचक एवं अद्भुत उदाहरण है। विरह-सन्तप्त सीता यद्यपि अत्यन्त दुःखी है, किन्तु वह परपुरुष के स्पर्श की भी कल्पना से अतिदूर एवं अत्यन्त स्वाभिमानिनी महिला के रूप में उपस्थित होती है। वह हनुमान से कहती है: “गुणविहीना बहू ही परपुरुष के साथ जा सकती है, कोई कुलवधू नहीं; क्योंकि यह रघुकुल-परम्परा के सर्वथा विपरीत है। हे वत्स ! यदि अपने कुलगृह भी जाना हो, तो भी उसे पति के बिना जाना अयुक्त है; क्योंकि जनपद के लोग प्राय: निन्दाशील, स्वभावदुष्ट एवं कलुषित मनवाले होते हैं । जहाँ जो बात नीतिविहीन होती है, वे तत्काल ही आशंका कर उसकी निन्दा करना प्रारम्भ कर देते हैं । अतः निशाचर दशानन के वध के पश्चात् ‘जय-जय' शब्द होने पर मैं श्री राम के साथ ही अपने जनपद जाऊँगी। उनके बिना मैं नहीं जा सकती। हाँ, तुम इतना अवश्य करो कि राम की जानकारी के लिए मेरा यह 'चूड़ामणि रत्न' उन्हें अर्पित कर देना" ।” व्यक्ति के धैर्य की भी एक सीमा होती है । निरन्तर घात-प्रतिघातों के मध्य धैर्य भी जब धैर्यविहीन हो सकता है, तब सीता केवल एक नारी थी। जब लंका - विजय के पश्चात् राम-लक्ष्मण एवं सीता के साथ अयोध्या वापस आ जाते हैं, किन्तु कुछ दिनों के बाद लोकापवाद के कारण राम सीता को वन में निर्वासित कर देते हैं। संयोग से पुण्डरीकनगर का राजा वज्रसंघ अपनी 'धर्मबहिन' मानकर उसे अटवी से अपने राजभवन में सादर ले आता है" । कालान्तर में सीता को लाने हेतु राम विभीषण, अंगद, सुग्रीव एवं हनुमान को भेजते हैं। उन्हें देखते ही सीता का धैर्य कुछ क्षणों के लिए टूट जाता है। और वह तीव्र शब्दों में राम की कटु आलोचना करने के लिए विवश हो जाती है। वह कहती है—“मेरे सामने पाषाण-हृदय राम का नाम मत लो। उनसे मुझे कभी सुख नहीं मिला । चुगलखोरों के कहने पर उन्होंने मुझे जो आघात पहुँचाया है, उसकी जलन सैकड़ों मेघों की वर्षा से भी शान्त नहीं हो सकती । " आगे चलकर सीता का रूप और भी अधिक उग्र हो उठा है । वह वस्तुतः दीर्घकाल से संचित मनस्संताप एवं उत्पीड़न का ही परिणाम था, जिसका बाँध राम को देखते ही टूट पड़ा है। परवर्ती प्राचीन भारतीय वाङ्मय में भारवि की द्रौपदी के भाषण के अतिरिक्त इतना तेजस्वी भाषण अन्यत्र उपलब्ध नहीं । अपभ्रंश-साहित्य में तो यह भाषण प्रथम एवं अन्तिम ही है। दीर्घावधि के बाद जब राम सीता के सम्मुख आते हैं, तब सीता को तो उनसे यही आशा थी कि उसके प्रियतम उसके आँसू पोंछकर स्नेह - सिक्त वाणी में उसकी कुशलता पूछेंगे, किन्तु उसकी कल्पना के सर्वथा विपरीत राम व्यंग्य - भरे शब्दों का प्रयोग करते हैं । सीता राम के इस व्यंग्यवाण से मर्माहत अवश्य हुई, किन्तु उसका स्वाभिमान उस अपमान को सहन नहीं कर सका । अत: वह भी राम की भाषा के समानान्तर ही उत्तर ☐☐ 60 प्राकृतविद्या + जुलाई-सितम्बर 199
SR No.521355
Book TitlePrakrit Vidya 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1999
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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