SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दूसरी ओर वह अपने पातिव्रत्य एवं शील-सदाचार की सुरक्षा के लिए अडिग, अकम्प एवं कठोर पाषाण की तरह भी है। 'नन्दनवाटिका' में मन्दोदरी जब रावण के राज्य-वैभव एवं ऐश्वर्य-सुखों का प्रलोभन देती हुई रावण को अपने प्रियतम के रूप में स्वीकार करने हेतु सीता से अनुरोध करती है, तब सीता बड़ी ही निर्भीकतापूर्वक रावण को तुच्छ बतलाकर मन्दोदरी की घोर भर्त्सना करती है और उसे फटकारती हुई कहती है—तुम अपने पति के लिए दौत्य-कर्म करके, मुझे फुसला रही हो। प्रतीत होता है कि तुम स्वयं भी किसी परपुरुष में आसक्त हो ।” मन्दोदरी के असफल हो जाने पर जब रावण स्वयं ही सीता के पास जाकर उसे तरह-तरह के प्रलोभन देता है और राम को तुच्छ एवं अधम सिद्ध करने का प्रयत्न करता है, तब सीता का शील-तेज भड़क उठता है और वह तमककर उसे उत्तर देती है-“अरे ! तू मुझे अपना ऋद्धि-वैभव क्या दिखलाता है? सुन ले, वह तो मेरे लिए तृण के समान तुच्छ है। तेरा सुन्दर एवं समृद्ध राज्य मेरे लिए यमशासन की तरह है। तेरा राजकुल मेरे लिए भयावह श्मसान के समान है, तथा तेरा यौवन मेरे लिए विष-भोजन के समान है। तेरे उस ऐश्वर्य-वैभव से क्या लाभ, जहाँ सन्नारियों के शील एवं चरित्र के खण्डित होने की आशंका हो?" सीता के इस दृढ़ शीलव्रत की प्रशंसा में रावण की पट्टरानी एवं दासियाँ स्वयं प्रशंसा करती हैं। सीता कष्ट-सहिष्णु है। अपहृत होने के बाद वह 21 दिन तक निराहार रह जाती है। वह प्रतिज्ञा करती है कि जब तक उसके प्रियतम (राम) का उसे कोई समाचार नहीं मिलेगा, तब तक उसके आहार-जल का त्याग है। वह रावण एवं उसकी दासियों द्वारा दिए गए कष्टों को बड़े धैर्य और साहस के साथ सहन करती है। वियोगिनी सीता पर हृदयवेधी अपमानजनक शब्दवाणों की घनघोर वर्षा तथा कल्पनातीत विपत्तियों की बौछारों के बीच भी उसके धैर्य एवं साहस को देखकर पवनपुत्र हनुमान स्वयं भी आश्चर्यचकित हो जाते हैं तथा वे उसकी प्रशंसा करते हुए कहते हैं"घोर विपत्तियों में प्राणान्त होने की स्थिति आने पर भी इस सीता ने असीम धैर्य धारण किया है। महिला होकर भी इसमें जितना साहस है, उतना पुरुषों में भी नहीं।" विरहिणी सीता नन्दनवन में जब राम की स्मृति में पीड़ित एवं अर्द्धमूर्च्छित रहती है, उसी समय हनुमान प्रच्छन्न रहकर सीता की गोद में राम की नामांकित मुद्रिका गिराते हैं। पूर्व में तो वह उसे इन्द्रजाल की तरह ही प्रतीत होती है, किन्तु बाद में जब उसे उसकी यथार्थता का पूर्ण विश्वास होता है, तब वह स्पष्ट कहती है कि “जो भी हितैषी राम की इस अंगूठी को लेकर यहाँ आया है, वह मेरे सामने साक्षात् उपस्थित हो।" उसका कथन सुनकर हनुमान उसके सम्मुख प्रकट हो जाते हैं और सीता को त्रस्त करनेवाली रावण की दूतियों को दूर हटाकर वे राम का कुशल वृत्तान्त कहकर सीता से राघव के पास चलने का निवेदन करते हैं । इस प्रसंग में सीता ने जो उत्तर दिया वह प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99 00 59
SR No.521355
Book TitlePrakrit Vidya 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1999
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy