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________________ तान बभाषे स्वभूः पुत्रान् प्रजा: सृजत पुत्रका:। तन्नैच्छन्न् मोक्षधर्मिको वासुदेवपरायणा: ।। 5।।" __-(भागवत, तृतीय स्कंध, द्वादश अध्याय) प्रसंग यह है कि ब्रह्माजी ने पहली सृष्टि में राग, द्वेष, मोह आदि पांच अज्ञानवृत्ति से पूर्ण पहली सृष्टि उत्पन्न की। उससे उन्हें संतोष नहीं हुआ, तो उन्होंने सनक, सनंदन, सनातक और सनत्कुमार -ये चार ऊर्ध्वरेता मुनि उत्पन्न किए और उनसे प्रजा का सृजन करने के लिए कहा; किंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। इस पर ब्रह्माजी को क्रोध आ गया। उनके शरीर के दो टुकड़े हो गए, जिनसे एक स्त्री-पुरुष का जोड़ा स्वायंभुव मनु और शतरूपा के रूप में प्रकटा। उससे प्रजा की सृष्टि हुई तथा प्रियव्रत का वंश चला। एक दिन सनत्कुमार आदि चारों श्रीहरि से मिलने बैकुण्ठ में जा पहुँचे; किंतु द्वारपालों ने उनहें रोक दिया। कारण“तान् वीक्ष्यवातरशनांश्चतुरः कुमारान् । वृद्धान्दशार्धवसयो विदितात्मतत्वान्.... ।।" -(श्लोक 30 का पूर्वार्ध भाग, भागवत, स्कंध 3, अध्याय 15) __ पुराण में दिया अनुवाद—“वे चारों कुमार पूर्णतत्त्वज्ञ थे तथा ब्रह्मा की सृष्टि में आयु में सबसे बड़े होने पर भी पाँच वर्ष के बालक से जान पड़ते थे और दिगंबरवृत्ति से (नंग-धड़ग) रहते थे।" जैन-परंपरा में दिगंबर मुनि को 'यथाजातकल्प' कहा गया है। 'यथाजात' का अर्थ है— 'जैसा जन्मा अर्थात् जन्म के समय बालक का जैसा निर्विकार सहज रूप होता है, वैसा रूप।' ___ हिंदू-पुराणों में ऋषभदेव का समय:-हिंदू-कालगणना के अनुसार सृष्टि को बने 1,97,29,49,095 वर्ष अर्थात् लगभग दो करोड़ वर्ष बीत चुके हैं। ऋषभदेव स्वायंभव मनु (जो कि प्रथम मनु थे) की पाँचवी पीढ़ी में हुए थे। एक मनु से दूसरे मनु में (मन्वन्तर) 30 करोड़ 67 लाख 20 हजार वर्षों का अंतर होता है और 17 लाख 28 हजार वर्ष तक प्रलय भी होता है। इस हिसाब से ऋषभदेव का प्रार्दुभाव 1 अरब 66 करोड़ 45 लाख 1096 वर्ष पूर्व होना चाहिए। (अंतिम को छोड़कर शेष आंकड़े मैंने प्रो० जी०आर० जैन के लेख 'जैन जगत् की उत्पत्ति...' लेख से लिए हैं जो कि 'आचार्य देशभूषण अभिनंदन ग्रंथ' में प्रकाशित हैं।) 'शिवपुराण' में शिवजी कहते हैं कि “मैं 'निवृत्तिपथवृद्धये' ऋषभ होऊँगा" (अध्याय 4, श्लोक 35)। इस पुराण के अंत में कहा गया है “ऋषभस्य चरित्रं ही परमं भावनं महत् । स्वयं यशस्यमायुष्यं श्रोतव्यं च प्रयत्नतः ।।" (उपर्युक्त अध्याय, श्लोक 48) इस श्लोक के बाद शिवपुराण' समाप्त हो जाता है। पं० बलदेव उपाध्याय ‘पद्मपुराण' के भूमिखंड का परिचय देते हुए लिखते हैं, "किसी प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99 1021
SR No.521355
Book TitlePrakrit Vidya 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1999
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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