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________________ के अंशकालीन प्रमाणपत्रीय' एवं 'डिप्लोमा' पाठ्यक्रमों की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान किया था, जिसके फलस्वरूप विगत तीन वर्षों में शताधिक जिज्ञासुओं ने वहाँ से उक्त पाठ्यक्रमों का लाभ लिया है तथा नियमितरूप से इनमें सम्मिलित होकर उच्च अंकों से ये परीक्षायें उत्तीर्ण की हैं। इन्हीं की सफलता से प्रेरित होकर इस विद्यापीठ ने केन्द्र सरकार को पूर्ण प्रगति-विवरण दिखाते हुए स्वतंत्र प्राकृतभाषा विभाग की स्थापना गतवर्ष करायी है। इसमें सत्र 1998-99 से विधिवत् अध्ययन-अध्यापनकार्य प्रारंभ हो गया है तथा दो विद्वानों की विधिवत् नियुक्ति भी इसमें हो चुकी है। ये सभी पाठ्यक्रम डॉ० सुदीप जैन के संयोजकत्व में प्रवर्तित एवं संचालित हैं। किंतु इन सबके मूल में पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज का मंगल आशीर्वाद तथा विद्यापीठ के संस्थापक कुलपति डॉ० मण्डन मिश्र जी एवं वर्तमान कुलपति प्रो० वाचस्पति उपाध्याय जी का अपार श्रम, निष्ठा एवं सहयोग ही प्रमुख तत्त्व है; अन्यथा प्राकृतभाषा के प्रचार-प्रसार मे संजीवनी का कार्य करने वाले ये कार्यक्रम प्रवर्तित हो सकना ही असंभव थे। इसके लिए संस्था उक्त कुलपतिद्वय (डॉ० मण्डन मिश्र जी एवं प्रो० वाचस्पति उपाध्याय जी) का उपकार कभी नहीं भूल सकती है। ___ इस संस्था का मूलमंत्र है-"न हि कृतमपकारं साधवो विस्मरन्ति ।" जो लोग “कार्यान्ते तणं मन्यते" (अर्थात् काम निकल जाने पर व्यक्ति की पूर्णत: उपेक्षा कर दी जाती है) की अनीति में आस्था रखते हैं, यह संस्था उनकी छाया तक से दूर रहकर कृतज्ञता की भावना का सर्वोपरि मानती है। इन दोनों महानुभावों (डॉ० मण्डन मिश्र जी एवं प्रो० वाचस्पति उपाध्याय जी) ने प्राकृतभाषा के प्रचार-प्रसार में अपार सहयोग कर हमारे पूर्वज विद्वानों, कवियों, आचार्यों के अपार प्राकृत-साहित्य को एवं उसमें निहित ज्ञान-विज्ञान को अपेक्षित बने रहने से बचाया है तथा बीसवीं शताब्दी में पुनर्जीवित करने का महान् कार्य किया है। अपने संस्थापकों से लेकर समस्त समाजसेवियों, विद्वानों, सहयोगियों आदि का यह संस्था कृतज्ञभाव से उपकार मानती है तथा संतों, मनीषियों एवं समाज के कर्णधारों से मार्गदर्शन करते हुए निरंतर समाजसेवा एवं धर्मप्रभावना के साथ-साथ राष्ट्र के शैक्षिक विकास में अपने योगदान के प्रति पूर्णत: सजग रहकर समर्पितभाव से विगत पच्चीस वर्षों से कार्यरत है। तथा इन्हीं उपलब्धियों से प्रेरणा प्राप्त कर आगे और भी उत्साह, लगन एवं समर्पण की भावना से राष्ट्र एवं समाज की सेवा में समर्पित रहने का दृढ़ संकल्प लेकर कर्तव्यपथ पर अग्रसर है। _ 'परचिन्ताऽधमाऽधमा' “जो दूसरों को अपने धर्म में दीक्षित कर दूसरों की आत्माओं का उद्धार करते फिरते | हैं, वे प्राय: अपनी आत्मा को भूल जाते हैं।” –विवेकानन्द 008 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99
SR No.521355
Book TitlePrakrit Vidya 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1999
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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