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________________ (१४) सद्य:कालीन परिप्रेक्ष्य में सूत्रकृतांग मंगला गोठी अध्यात्मप्रत्ययिक क्रियास्थान का वर्णन 'क्रियास्थान' नामक दुसरे अध्ययन में आया है । जो तेरह क्रियास्थान बताये गये हैं, उनमें से ये आठवाँ क्रियास्थान हैं । संक्षेप में इसका अर्थ यह है कि किसी ने हमें कष्ट नहीं पहुँचाया, फिर भी मन विषाद और निराशा से भरा हुआ है । इसका कारण है क्रोध, मान, माया, लोभ ये चित्त में समाये हुए चार कषाय । मकडी के जाल के समान, हम खुद को ही नकारात्मक सोच के जाल में बन्दी बनाकर उसमें जकडते चले जाते हैं । मैं तो समझती हूँ कि, आज का मनुष्य सबसे ज्यादा अध्यात्मप्रत्ययिक का ही शिकार बना हुआ है। दहशतवाद, गुण्डागर्दी, अत्याचार और खून की होली खेलनेवाले ये सब मुठ्ठीभर लोग स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं । लेकिन खुद को ही खोखला बनानेवाला अध्यात्मप्रत्ययिक रोग (नासूर) की तरह बढ़ता ही जा रहा है । ये नकारात्मक सोच स्लो पॉइझन का काम कर रही है। इसके महाभयंकर परिणाम अब हमारे सामने वास्तविक रूप से उभरकर आ रहे हैं । ब्लडप्रेशर, डिप्रेशन, अल्जायमर, स्क्रिझोफेनिया ये सब इसी सोच के परिणाम हैं । आजकल तो बचपन में ही इसका बीज बोया जाता है। शिक्षा, खेल, कला जैसी हुनर में बढती हुई स्पर्धारूपी कषाय ने, बच्चों की निरागसता छीन ली है । परिणाम - बातबात पे चिडचिडापन, जिद्दी स्वभाव, दूसरों को कम लेखना, बडों का आदर न करना, ये अब 'घर घर की कहानी' बन गयी है। बात घर की ही आ गयी है, तो हम उसी पे थोडा प्रकाश डाले । पहले की तरह ना तो हम पारतंत्र्य में जी रहे हैं, ना बडी बडी नैसर्गिक आपत्ति का शिकार बने हैं, ना तो प्लेग या (बडी माता) जैसे महाभयंकर प्रकोप से घर के घर बेघर हो रहे हैं। परन्तु हम अपने ही घर में बेघर हो रहे हैं, वो हमारे ही खुद के चार कषाय के कारण । मन का सुख पाने के प्रयास में हम आत्मिक सुख खो बैठे हैं । ये बात विस्तृत करने के लिए कवि की एक पंक्ति ही काफी है - "अमृत घट भरले तुझिया दारी, का वणवण फिरसी बाजारी ।” हमारे चार कषाय ही चार वादियों के समान आत्मरूपी 'पद्मवरपुण्डरीक' को ऊपर उठाने के बजाय, कर्मरूपी कीचड में फँसाते जा रहे हैं । खुद की ही दिशाभूल कर रहे हैं । निराशा से भरा हुआ मन क्या ‘आहार-परिज्ञा' का पालन करेगा ? उसे भूलाने के लिए ज्यादा आहार ग्रहण किया जाता है, या उसे छिपाने के लिए उपवास का सहारा लिया जाता है । जब हम निजी जिंदगी से ही उभर नहीं पाते, तो सम्पूर्ण जगत् के सजीवता का क्या अनुभव करेंगे ? 'प्रत्याख्यान' तो बहुत दूर की बात है । विषादभरा एकांगी दृष्टिकोण खुद के अलग-अलग आयामों को समझने में असमर्थ है, तो अनेकान्तवाद जैसा परिपूर्ण सिद्धान्त क्या हम जानें ? लेकिन हाँ ! 'आर्द्रक' ने 'गोशालक' को दिया हुआ जवाब मुझे यहाँ सर्वथा उचित और योग्य दिखाई देता है । ऐसे लोग अनेक लोगों से घिरे होने के बावजूद भी, उनका एकान्तवास चालू रहता है । वे हमेशा अलिप्त रहते हैं । 'स्थिति' एकसमान है, लेकिन आन्तरिक भाव डोरी के दो छोर । भ. महावीर की एकान्तवास की तार, आत्मा से जुडी हुई थी और अध्यात्मप्रत्ययिक का दोष लगनेवाले की तार, मन जैसे पुद्गल परमाणु से जुडी हुई है । एक छोर मोक्ष की तरफ जाता है, तो दूसरा छोर संसारचक्र में गिरा देता है। ********** (१५) अद्दगस्स कहाणयं आशा कांकरिया तेणं कालेणं तेणं समएणं अणज्ज-विसए अद्दगपुरं नाम नयरं होत्था । तत्थ अद्दग-राया रज्जं करेइ । तस्स पुत्तो वि ‘अद्दगकुमार' नामेण पसिद्धो ।
SR No.521251
Book TitleSanmati Teerth Varshik Patrica 2013
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNalin Joshi, Kaumudi Baldota, Anita Bothra
PublisherSanmati Teerth Pune
Publication Year2013
Total Pages72
LanguageMarathi
ClassificationMagazine, India_Marathi Sanmati Teerth, & India
File Size1 MB
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