________________ वर्षाबेन पटेल SAMBODHI की परिधि ही बढ़ाते है एवं जनसमाज में नानाप्रकार की कसरत दिखाकर वाह-वाही लूटने की चेष्टा करते है। काव्य क्षेत्र में भी यह पहलवानी मनोवृत्ति कोई कम हो, ऐसा नहीं, लेकिन जहाँ लेखक इस पहलवानी मनोवृत्ति का परिचय देता है, वही अकवि है, उसकी रचना भी अकाव्य है। हमने देखा - शब्दालंकार भाषा के संगीत-धर्म के अन्तगर्त है / भाषा के चित्र-धर्म में अर्थालंकार आते है / अवश्य ही यह चित्र-धर्म-संज्ञा खूब-स्पष्ट नहीं है। इसीलिए उसकी व्याख्या की आवश्यकता है। बाहर की किसी वस्तु या घटना के स्मृतिधृत स्फुट-अस्फुट चित्र को मन के पद में जमाकर उसकी सहायता से वक्तव्य की अभिव्यक्ति करने के धर्म को ही मैंने भाषा का चित्र-धर्म नाम दिया है। थोडा सोचने पर हम यह देख पायेगें कि हम जो कुछ सोचते या समझते है, वह सम्पूर्ण नहीं तो अधिकांश ही बहिर्जगत् की अभिज्ञता द्वारा ही प्राप्त किया है या इसके भीतर मन की बहुत सी निजस्व सम्पदा भी है - इसे लेकर दार्शनिको एवं मनोवैज्ञानिको में यथेष्ट विवाद है किन्तु जिन्हों ने ज्ञान के भीतर मन की निजस्व सम्पदा की बात स्वीकार की है। उन्होंने भी साधारणतः यह कहा है कि ज्ञान का प्रायः समस्त उपकरण ही बहिर्जगत् से संगृहीत होता है। ___ इन्द्रियानुभूति द्वारा वस्तु के सम्बन्ध में जो चित् - प्रत्यय होता है, उसमें मन अपनी निजस्व शक्ति द्वारा नानाविध सम्बन्ध स्थापित कर लेता है। किन्तु ऐसा होने पर भी हमारा ज्ञान मूलत: निर्भर करता है बहिवस्तु या घटना की अनुभूति के ऊपर हो / हो सकता है कि आज ज्ञान के उपकरणो के भीतर बहिर्जगत को ये प्रतिच्छवियाँ खूब स्पष्ट होकर आँखो के सामने नहीं आती, इसीलिए शायद हम लोंगो का ज्ञान आज बहुत कुछ शब्दजन्य ही प्रतीत होता है, किन्तु थोडा विश्लेषण करने पर ही अचेतन से भाषा में बहिवस्तु या घटना की ये प्रतिच्छवियाँ पुनः स्पष्ट हो जाती है। अपने मन के जिन भावों को हम अमूर्त समझते है, वे भी सम्पूर्णत: अमूर्त है कि नहीं, इस विषय में घोर सन्देह है। खोजने पर शायद उनके पीछे भी मन के अवचेतन लोक में कुछ-कुछ अस्पष्ट प्रतिच्छवियों का संधान मिल सकता है। कुछ मिलाकर हम देख पाते है कि हमारी ज्ञान - क्रिया सम्पूर्णतः नहीं तो, अधिकांशतः निष्पन्न होती है, बहिवस्तु या घटना की प्रतिच्छवि में / यह खूब स्पष्ट हो उठता है जब हम अपने मानसिक या आध्यात्मिक जगत् के संबन्ध में कोई बात कहने जाते हैं, इन सभी विषयों की बात करते समय हमे बहिजगत् की वस्तु या घटना की प्रतिच्छवि का सहारा लेना ही पड़ता है। भाषा में निहित यह जो बहिजगत् की प्रतिच्छवि है, वही भाषा का चित्र-धर्म है। भाषा का यह चित्र-धर्म ही विकसित होकर सृष्टि करता है।