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Vol. XXXVII, 2014
कालिदास के शब्दालंकार और अर्थालंकार का मूल रहस्य उमा के लावण्य की कमनीयता कुछ छन्द में, कुछ चित्र में और कुछ ध्वनि की कमनीयता में कविने पल्फुटित करने की चेष्टा की है और अभिनन्ध कवि जहाँ मेधविधुन्मयी घनान्धकारमयी भयंकर रजनी का वर्णन करते है। विधुदीधितिभेदभीष्जातमःस्तोमान्तराः सन्तत श्यामाम्मोधररोघसंकटविग्रद् पोषितज्योतिषः । खधोतानुमितोपकण्ठतरवः पुष्णाति गम्भीरताम् आसारोदकमत-कीटपटली-क्वोणोत्तरा रात्रयः ।।
वहाँ गम्भीर अन्धकारमयी रजनी की भीषणता, उसमें उठने वाले तुफान की प्रचण्डता मानी शब्दध्वनि के द्वारा मूर्त हो उठी है। जरा सोचने से यह साफ दिखलायी पडेगा कि यहाँ शब्दालंकार भी केवल कटककुण्डलादिवत् ही नहीं है, साधारण शब्द एवं अर्थ द्वारा जो प्रकट नहीं हो सकता, संगीत द्वारा, भंकार द्वारा, उसी को प्रकट किया गया है। अभिव्यंजना के इस कला-कौशल को चेष्टापूर्वक नहीं लाना पडता। कवि की सचेतनता के भीतर ही सर्वदा उसकी उत्पत्ति होती है, ऐसी बात भी नहीं कही जा सकती, भोलनाथ रूपी रस-सत्ता के भीतर ही जो स्पन्दमयी अभिव्यंजना - शक्ति निहित रहती है, वह समस्त कला - कौशल उस शक्ति की विलासविभूति-मात्र है। भाव की सूक्ष्मता एवं अनिवर्चनीयता के भीतर ही छिपी रहती है इन सब कला-कौशलौ की प्रयोजनीयता, अभिव्यंजना के समय इसीलिए भाव स्वयं ही इनका संग्रह कर लेता है। शब्दालंकार जहाँ भावप्रकाश की स्वच्छन्द गति के भीतर ही अति स्वाभाविक नियम से नहीं है वह एक कृत्रिम चाकचिक्य मात्र रह जाता है, वहाँ प्रयोजन की अपेक्षा आयोजन अधिक रहता है। कवि जयदेव ने जहाँ मेघमेदुरम्बरं वनभुवः श्यामास्तमालद्रुमः प्रभृति द्वारा घन-मेघ-जाल से समावृत नभोमण्डल एवं श्यामल तमाल-तरु-समूह से अन्धकारमय वनभूभाग के वर्णन द्वारा काव्यारम्भ किया है, वहाँ उनके शब्द की भंकार सार्थक है, किन्तु उन्हों ने ही जहाँ वसन्त वर्णन करते हुए लिखा ।
लिलत-लवंग-लता-परिशीलन-कोमल-मलय-समीरे । मधुकर-निकरकरम्बित-कोकिल-कूजित-कुज्जकुटीरे ॥ अथवा उन्मद-मदन-मनोरथ-पिथक-वधूजन-जिनत-विलाये ।
ग्रलिकुल-संकुल-कुसुम-समूह-निराकुलबकुल-कलापे ॥ वहाँ यहप्पष्ट है कि यह भाव की स्वच्छद गति द्वारा प्रसूत नहीं, कवि की सचेन चेष्टा का फल है एवं शब्द का भंकार यहाँ बहुत कुछ कटककुण्डलानि के अनावश्यक प्राचुर्य एवं भंकार की तरह काव्य के शरीर और मन को भाराक्रान्त करनेवाली है। शब्दालंकार एवं अर्थालंकार द्वारा केवल अनावश्यक चातुर्य दिखलाने की चेष्टा संस्कृत साहित्य में कुछ कम हुई है, ऐसा नहीं । हमारे बंगला और हिन्दी साहित्य में उससे अधिक हुई है केवल पद्य में ही नहीं, गद्य में भी । देह को स्वास्थ्यवान् एवं कर्मठ बनाने के लिए व्यायामादि कर मांसपेशियों को सुगठित करना उचित है, लेकिन ऐसे भी व्यक्ति संसार में दुर्लभ नहीं है जो संसार के और किसी विशेष कार्य आते ही नहीं, केवल मुदगर भांजकर दोनो हाथों को मांसपेशियों