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________________ Vol. XXXVII, 2014 'संस्कृत की वैज्ञानिकता' तथा व्याकरणशास्त्र को पतञ्जलि की देन 85 गयी है तथा व्याकरण को दर्शन का स्वरूप प्रदान किया गया है। इसमें स्फोटवाद की मीमांसा कर शब्द को ब्रह्म का रूप मान लिया गया है / पतञ्जलि ने 'महाभाष्य' में 'तपरस्तत्कालस्य' (अष्टाध्यायी-१/१/ 70 के भाष्य में) 'स्फोट' को शब्द और 'ध्वनि' को शब्द का गुण कहा है और एक अन्य सूत्र२० के अर्थघटन में 'स्फोट' शब्द का उल्लेख किया है। उनके मतानुसार व्यक्त शब्दों में स्फोट और ध्वनि-दोनों रहते हैं। किन्तु अव्यक्त शब्दों में अर्थवाचकत्वरूप शक्ति का अभाव होने से स्फोट नहीं रहता है, केवल ध्वनि रहता है / 21 स्फोट की यह एकरूपता या अभिन्नता (हास) और महत्ता (वृद्धि) को दर्शाने के लिए भाष्यकार पतञ्जलि ने ताशा (बड़ा ढोल) बजानेवाले ढोली का एक सूचक दृष्टान्त दिया है / 22 ___'महाभाष्य" के अध्ययन से विदित होता है कि यह ग्रन्थ केवल शब्दविचार का ग्रन्थ नहीं है, अपितु व्याकरण के असंख्य नये विचारों और सिद्धान्तों जैसे कि ध्वनि, लिंग, काल, पुरुष, क्रिया, समासादि चर्चा का है / इस ग्रन्थ में मुख्यतः वेद, ब्राह्मणग्रन्थ, प्राचीन पार्षदसूत्र, मीमांसा, सांख्य और वैशेषिकों के सिद्धान्त देखने को मिलते हैं / पाणिनीय व्याकरण पर किये हुए अपने अन्वाख्यान को शास्त्र और दर्शन की कक्षा तक पहुँचाने के लिए पतञ्जलिने व्याकरण की विविध युक्तियाँ का उपयोग किया है / जैसे कि 'चानुकृष्टस्य उत्तरत्रानुवृत्तिः', मण्डूकप्लुति, गोयूथ (समान ध्येयवाले सूत्र परस्पर एकदूसरे का ध्यान रखते हैं), सिंहनिष्क्रिडित आदि / स्पश् बाधने धातु का चङ्लुगन्त (पौनः पुन्यार्थक) रूप लेकर, उसमें पृषोदरादि गण की प्रक्रिया का आश्रय लेकर 'पस्पशा' शब्द सिद्ध किया जाता है। इस प्रकार ‘पस्पशा' शब्द 'चूर्णिका' का समानार्थी बन जाता है / जिस आह्निक में पूर्वपक्ष के मन्तव्यों का अतिशयतापूर्वक निरसन-खण्डन किया गया है, ऐसे 'पस्पशाह्निक' में व्याकरणशास्त्र के नये आयाम निरुपित किए गये हैं / कवि श्री माघ ने 'शिशुपालवध' में एक जगह श्लिष्ट पदरचना करते इस 'पस्पशाह्निक' की प्रशंसा करते हुए कहा है कि जैसे राजनीति गुप्तचरों (स्पश्) के बिना शोभा नहीं देती, वैसे शब्दविद्या (व्याकरणशास्त्र) भी पस्पशाह्निक के बिना शोभा नहीं देती / 23 न्यायदर्शन के सुप्रसिद्ध विद्वान् श्री अन्नंभट्टने 'महाभाष्यप्रदीपोद्योतन' टीका में इस आह्निक की प्रशंसा की है / 24 सूत्रकार ने प्रयुक्त किए 'अनपुंसकस्य' शब्द का विवेचन करते हुए पतञ्जलि ‘असूर्यपश्य, अश्राद्धभोजी, अपुनर्गेय' आदि समासों की चर्चा करते हैं / 'समर्थाह्निक' में 'समर्थः पदविधिः' (पा.सू.२/१/१) सूत्र पर भाष्य करके समास के विषय में विविध दृष्टिकोण से चर्चा की है। आह्निक-२८ में तद्राज, गोत्रापत्य. और अपत्य अर्थवाले तद्धित प्रत्यय, सुप् प्रत्यय, 'शप्' विकरण, सिच्, आम् आदि प्रत्यय, आह्निक - 30 में कयच्, काम्यच, कयङ् कवष्, णिङ् णिच् और गद् प्रत्ययों का विचार किया है। भूतकाल-प्रत्ययाह्निक (आह्निक-३६) में वैयाकरण शाकटायन के नाम की चर्चा के प्रसंग में पतञ्जलि की विनोदवृत्ति दिखाई देती है / अन्तिम आह्निक-८५ के अन्त में 'सिद्धम्' जैसे मंगल शब्द का प्रयोग किया है। 'महाभाष्य' का महत्त्व, उस पर लिखी गई अनेक टीकाओं को देखकर, सहज ही में हृदयंगम हो जाता है। उनमें से कुछ टीकाएँ तो नष्ट हो चुकी है और जो बची भी हैं, उनमें से भी कुछ टीकाकारों का परिचय नहीं मिलता है। बहुत-सी टीकाएं हस्तलिखित पोथियों के रूप में जीवित हैं, जिन पर अभी
SR No.520787
Book TitleSambodhi 2014 Vol 37
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2014
Total Pages230
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size25 MB
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