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________________ 76 दिलीप चारण SAMBODHI है कि स्वस्थ समाज अनैतिक नहीं हो सकता है; अन्यायी, अमानवीय भी नहीं हो सकता क्योंकि स्वस्थ समाज स्वतंत्रता और न्याय को स्वीकार करता है । स्वस्थ समाज का आधार समान मानवस्वातंत्र्य और न्याय पर निर्भर है। यह स्वस्थ समाज तीनों चिंतकों के अनुसार राजकीय या सामाजिक व्यवस्था की उपज नहीं है बल्कि यह एक जीवनपद्धति है । अर्थात् न्याय और स्वतंत्रता नैतिक जीवन का परिणाम है और हर व्यक्ति को इसे निभाना है। हर व्यक्ति के आचरण से सामाजिक - आर्थिक समानता प्राप्त होगी लेकिन इसके लिए समाज के सभी व्यक्तियों को एक धरातल पर रहना चाहिए । अर्थात् समानता के व्यवहार के बिना सामाजिक और आर्थिक समानता पनप नहीं सकती । इन तीनों चिंतकों के अनुसार इस समानता की बुनियाद नीति ही है। स्वस्थ समाज नैतिक समाज है । स्वस्थ समाज नैतिक समाज है। इस स्वस्थ समाज के लिए तीनों चिंतकों के अनुसार शिक्षा ही एक प्रमुख साधन है जो हमें विवेक सिखाती है। इस विवेक से पूर्वग्रह रहित स्वस्थ सामाजिक व्यवहार का निर्वहन हो सकता है। ये तीनों चिंतक इस बात पर सहमत है कि समाज में न्याय और समानता नैतिक होनी चाहिए । इस नैतिकता का आधार मानवस्वातंत्र्य है। शिक्षा व्यवस्था का यही उत्तरदायित्व है कि मानवस्वातंत्र्य को नैतिक व्यवहार से चरितार्थ करे । इस नैतिकता का आधार इन तीनों चिंतकों में आध्यात्मिकता है। आध्यात्मिकता ही समाज में परिवर्तन ला सकती है। इससे स्वस्थ समाज का निर्माण हो सकता है । ये तीनों चिंतक इस सिद्धांत पर टिके हुए हैं कि सामाजिक वास्तविकता (Reality) के परिवर्तन का मूल आधार ज्ञानात्मक परिवर्तन है। ज्ञानात्मक परिवर्तन से ही सामाजिक परिवर्तन हो सकता है । स्वस्थ समाज का प्रारूप - असमानता एवं अन्याय का निषेध = स्वस्थ समाज = स्वस्थ समाज की परिणती का आधार १. शिक्षा २. आध्यात्मिकता ३. नैतिकता ४. समानता और न्याय यह एक आदर्श समाज व्यवस्था का प्रारूप है जिसे हम Utopian Social Construction कह सकते हैं । यह एक आदर्श के रूप में उचित होते हुए भी उसका वरण कैसे किया जाए (Praxies) यह एक चिंतनयोग्य प्रश्न है। विशेषतः वर्तमान संदर्भ में इसका कैसे विनियोग हो सके क्योंकि वर्तमान समाज के अनेक चेहरे हैं। यह समाज उदारमतवादी है तो मूलभूततावादी और फासीवाद भी उसका चेहरा है । उसका एक चेहरा राष्ट्रवाद का है तो दूसरा बहुसांस्कृतिक समाज का भी है। सांस्कृतिक संघर्ष का भी एक चेहरा है । इसका अर्थ यही है कि हम वर्तमान संदर्भ में बहुविध पहचान रखते है। (Parekh (2008) : 1) इसी के कारण समानतावादी न्याय का निर्माण हमारे लिए एक चुनौती है। स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद सरस्वती और ज्योतिबा फुले के आदर्श को चरितार्थ करने के लिए वर्तमान परिस्थिति
SR No.520787
Book TitleSambodhi 2014 Vol 37
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2014
Total Pages230
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size25 MB
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