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________________ 75 Vol. XXXVII, 2014 भारतीय नवजागृति के तीन दार्शनिकों की समीक्षा their common welfare. May this view through the grace and help of the Almighty God, and with the support of all virtuous and pious men, soon spread in the whole world so that all may easily acquire righteousness, wealth, gratification of legitimate desires and attain salvation, and thereby elevate themselves and live in happiness. This alone is my chief aim. (Yadav (1976) : 54-65) ज्योतिराव फुले स्पष्ट रूप से ज्ञातिवाद के विरोधी थे क्योंकि ज्ञातिवाद से समाज में ऊँच-नीच की स्थापना होती है / ऊँच-नीच श्रेणी प्रस्थापित होती है जो प्रगट एवं प्रच्छन्न दमन का साधन बनती है जो वास्तव में स्वस्थ समाज के दो मूल्यों को विस्थापित करती हो और ये दो मूल्य हैं - स्वतंत्रता और समानता / सामाजिक न्याय की ये दो धरोहर हैं। जिन्हें महात्मा फुले स्वीकार करते हैं / इसी विचारमूल्य को प्रस्थापित करने के लिए महात्मा ज्योतिराव फुले ने 'सत्यशोधक समाज' की स्थापना 24 सितम्बर सन् 1873 में की जिसमें मानवतावाद की भी स्वीकृति है। सन 1911 की ग्यारह अप्रैल को पुणे में 'सत्यसमाज' के अधिवेशन में श्री रामैया वैकटैया की अध्यक्षता में इस अधिवेशन में 'सत्यसमाज' का अपना दृष्टिबिंदु स्पष्ट करते हुए कहा कि : 1. इस समाज को सत्य समाज कहना चाहिए / 2. A. सभी मानव ईश्वर की संतान है। B. ईश्वर की भक्ति या साधना के लिए किसी भी मध्यस्थि की जरूरत नहीं है / C. इसको स्वीकार करनेवाला सत्यसमाजी है। 3. प्रत्येक सत्यसमाजी को निम्नलिखित शपथ का अनुसरण करना चाहिए / "सभी ईश्वर के संतान है। भ्रातृभाव एवं बंधुत्व के संबंध को मन में धारण करके सभी व्यवहार करूँगा और अन्यों को भी उसी प्रकार व्यवहार करने के लिए प्रेरित करूंगा। मैं अपनी संतानों को शिक्षा प्रदान करूँगा / मैं अपने शासकों के प्रति वफादार रहूँगा / इस शपथ को मैं याद रखूगा / सर्वसत्ताधीश ईश्वर जो सर्वव्यापक है एवं सत्यस्वरूप भी है / ईश्वर मुझे शक्ति दे ताकि मैं अपने जीवन का परम श्रेय पूर्ण कर सकूँ।" (Patil (1991) : 86) ये तीनों चिंतक स्वस्थ समाज की स्थापना के लिए प्रतिबद्ध हैं / यह स्वस्थ समाज की स्थापना मनुष्य के गौरव और उसके आत्मकल्याण की अपेक्षा रखती है ! इस आत्मकल्याण में विक्षिप्तता का मूल कारण वर्गीय व्यवस्था, जातिप्रथा और उससे प्राप्त ऊँच-नीच और असमानता है जो मनुष्य के आत्मगौरव का हनन करती है / इसे हम अज्ञान का अंतरपट कह सकते हैं / इस अंतरपट के कारण हम समाज में और समाज के सदस्यों के बीच में समानस्वतंत्र्य का निर्माण नहीं कर सकते / अन्य के प्रति सम्माननीय, औचित्यपूर्ण व्यवहार नहीं कर सकते / समाज में विभाजन या अलगाव को एक व्यवस्था के रूप में सभी स्वीकार करते हैं / ये तीनों चिंतक स्पष्ट रूप से इस विभाजन को अनैतिक मानते हैं / इसका अर्थ यह
SR No.520787
Book TitleSambodhi 2014 Vol 37
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2014
Total Pages230
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size25 MB
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