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दिलीप चारण
SAMBODHI
इसके लिए शिक्षा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। स्वामीजी के अनुसार “शिक्षा राष्ट्रीय, व्यावहारिक, गैरसांप्रदायिक और आध्यात्मिक होनी चाहिए क्योंकि शिक्षा का आदर्श मानव का निर्माण है। पश्चिमी दासत्वप्रधान शिक्षा सही रूप में मानव का निर्माण नहीं है।" (Prema Nandakumar (2013) : 210) सही शिक्षा शारीरिक, बौद्धिक, भावात्मक और आध्यात्मिकता का संचरण है जौ स्वामी जी के अनुसार श्रमप्रधान दिव्यता है। इसलिए शिक्षा सेवारूप साधना से जुड़ी रहनी चाहिए। मानव प्रवृत्ति का विभागीकरण शिक्षा के लिए एकांतिक व्यक्तित्वनिर्माण का निमित्त है। व्यक्ति का सर्वग्राही जीवनदर्शन और जीवनव्यवहार ही शिक्षा के लिए इष्ट है । इस तरह स्वामीजी ने अपने शिक्षाविचार में व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की पूर्ण क्रान्ति की आकांक्षा का वरण किया है। . स्वामी दयानंद ने स्पष्ट रूप से सन् १९७२ में ख्रिस्तीधर्मी और मुसलमानों के साथ मुक्ति के प्रश्न पर की गई चर्चा में कहा था कि "मुक्ति का अर्थ है - सर्व दुःख से मुक्ति । दुःख का कारण अनिवार्य रूप से पाप है।" (Sharma (2002) : 124) इस पाप से मुक्त होना ही दुःखमुक्ति है। इस दुःखमुक्ति के लिए व्यक्ति को स्वयं ही प्रयास करना होगा । यह निराश्रय खोज ही मुक्ति की चाबी है ।
इसलिए उनका कहना है की मानव होना सर्व परिस्थिति में निर्भय होकर मन की शांति का वरण करना है। सद्गुणी मनुष्य वह है जो गरीब और अशक्त को आधार देता है जो निराधार का आधार बन सकता है जो अन्य मनुष्य को समान सम्मान दे सके । न्याय के मार्ग से कभी विचलित न हो । सत्य ही वरण करने योग्य है। मनुष्य को सत्य का ही वरण करना चाहिए । सही अर्थ या सच्ची संपत्ति यही है जो न्यायिक रूप से उपार्जित हुई हो अन्यथा वह अनर्थ है। उचित इच्छाएँ वही है जो धर्म से अविरुद्ध एवं प्रामाणिक हो । उचित वर्ण वही है जो सद्गुण और सत्कर्म से नियत है । सही शिक्षा वही है जो ज्ञान, संस्कृति, न्याय और आत्मसंयम के सद्गुण का अनावरण करें ।
संक्षेप में सही अर्थ में सत्य का वरण करना चाहिए । यह सत्य कोई संकीर्णता से बद्ध नहीं है। इसी सत्य पर सभी धर्मों की नींव रखी जाए तो स्वस्थ समाज का निर्माण हो सकता है। स्वामी दयानंदजी ने सन् १८७५ में मुंबई में आर्यसमाज के अठ्ठाईस नियमों की सूची प्रस्तुत की । इसी सूची को उन्होंने सन् १८७७ में लाहौर में दस नियमों की सूची के रूप में प्रस्तुत किया। जिसमें उन्होंने कहा कि हमें सत्य का स्वीकार करना चाहिए और असत्य को दूर करना चाहिए । (Jordens (1958) : 33740) सत्य-असत्य का विवेक ही धर्म की आधारशिला है । आर्यसमाज का प्रमुख उद्देश है जगत का भौतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक सुधार के द्वारा विश्व का कल्याण करना । सभी के साथ प्रेम और न्यायपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। अज्ञान और ज्ञान के धुधलेपन को बहिष्कृत करना चाहिए। प्रगति केवल निजी न रहकर सार्वत्रिक बननी चाहिए। व्यक्ति समाज से और सामाजिक नियम से बंधा हुआ है परंतु अपने श्रेय के बारे में व्यक्ति स्वतंत्र है।
My purpose and aim is to help in putting an end to this mutual wrangling, to preach universal truth, to bring all men under one religion so that they may, be ceasing to hate each other and firmly loving each other, live in peace and work for