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भारतीय नवजागृति के तीन दार्शनिकों की समीक्षा : स्वामी विवेकानंद, दयानंद सरस्वती और ज्योतिबा फूले के .
विशेष संदर्भ में
दिलीप चारण
सामाजिक स्वतंत्रता की ज्ञानमीमांसा एक स्वस्थ समाज की धरोहर पर ही टिक सकती है। इसमें हमें सामाजिक स्वतंत्रता के तात्त्विक एवं ज्ञानात्मक पहलुओं को उजागर करना होगा । यह देखा गया है कि समाज में ज्ञानात्मक परिवर्तन मूलत: वैचारिक परिवर्तन पर आश्रित है लेकिन केवल वैचारिक परिवर्तन पर्याप्त नहीं है क्योकि जहाँ तक ज्ञानात्मक परिवर्तन अर्जित नहीं होता वहाँ तक वैचारिक परिवर्तन की तात्त्विक आधारशिला केवल वाग्व्यापार से विशेष नहीं होती । इसलिए सामाजिक स्वतंत्रता की नींव ज्ञानात्मक परिवर्तन पर ही प्रस्थापित करना अभीष्ट है। इस पक्ष को हमारे तीनों चिंतकों ने स्वीकार किया है। स्वस्थ समाज की नींव कैसे डाली जाए यही इन तीनों चिंतकों की चिंता और चिंतन का विषय है। तीनों चिंतकों की चिंता समुचित स्वतंत्र समाज के निर्माण के प्रति है। इस नवनिर्माण की प्रेरणा धर्म एवं प्राप्त धार्मिक एवम् सामाजिक व्यवहारों से उत्पन्न हुई है। इसलिए तीनों ने प्राप्त समाज व्यवस्था के सामने केवल वैचारिक विद्रोह नहीं किया बल्कि उन्होंने उस व्यवस्था के ऊपर कुठारघात भी किया हैं । उन्होंने केवल मेक्रोलेवल के विस्थापन की बात नहीं की बल्कि माइक्रोलेवल पर प्राप्त व्यवस्था का विस्थापन कैसे किया जाए इसका निदर्शन भी किया ।
विवेकानंद ने धार्मिक उन्माद का प्रबल विरोध किया क्योंकि यह धार्मिक उन्माद व्यक्तित्व का निषेध करता है । स्वस्थ समाज की अवधारणा का आधार वैयक्तिकता का निषेध करनेवाली धार्मिक असहिष्णुता नहीं हो सकती । उसका सही आधार आत्मतत्त्व है । उस आत्मतत्त्व का साक्षात्कार, उस आत्मतत्त्व की खोज ही सही रूप में स्वतंत्रता का निर्माण है। इस स्वतंत्रता के निर्माण के लिए हमें सभी अपूर्णता, दुःख एवं मृत्यु से भी परे उठना है। स्वामीजी ने कहा "अनंत सर्वदेशी वैयक्तिकता को प्राप्त करने के लिए हमें अपनी दयनीय मर्यादा की कैद से मुक्त होना पड़ेगा।" (The complete works of Swami Vivekananda(1970):30-34) उसके लिए हमारे पास संकीर्णता से मुक्त होने की बलिष्ठ इच्छा होनी चाहिए। स्वामीजी के अनुसार वैयक्तिक संकीर्णता से परे होना ही स्वस्थ समाज का प्राप्त व्यवहार है।