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Vol. XXXVI, 2013
'धम्म' एक मात्र तारणहार : पुस्तक की समीक्षा
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क्या बुद्ध के सम्बन्ध में प्रो. बन्दिस्ते का निम्न कथन आत्म-विरोधी नहीं है ? Buddha had a scientific outlook, but not much scientific knowledge. क्या बिना वैज्ञानिक ज्ञान के वैज्ञानिक दृष्टिकोण बन सकेगा ?
मेरी दृष्टि में मात्र बुद्धिवादी दृष्टि से बुद्ध और उनके धर्म को समझने का यह प्रयत्न कहीं बुद्ध और उनके धर्म का अवमूल्यन तो नहीं कर रहा है ? धर्म मात्र 'बौद्धिक नैतिकता' नहीं है - ऐसी नैतिकता जिसके पीछे आध्यात्मिक सम्बल नहीं हो, मानवीय मूल्यों के पीछे आस्था और त्याग या सर्वात्मना समर्पण का बल नहीं हो, हृदय की सम्पूर्ण गहराईयों से भाव प्रवणता न हो, कैसे एक समतावादी समाज का निर्माण कर सकेगी। धर्म का आधार तार्किक छलपूर्ण भौतिकता नहीं है, उसके पीछे त्याग और समर्पण भी अपेक्षित है। समतावादी समाज मानव के निष्ठापूर्ण त्याग और संयम के आध्यात्मिक मूल्यों पर खड़ा होगा और वही मानव जाति का तारणहार होगा।
प्रस्तुत कृति की समीक्षा में मैं दो बात और भी कहना चाहूँगा - प्रथम तो यह कि यह कृति मूल बौद्ध साहित्य पर आधारित नहीं है, सम्पूर्ण कृति में प्राय: बुद्धवचन और मूल त्रिपिटक साहित्य का एक भी सन्दर्भ नहीं है, बिना बुद्ध-वचनों के और उनके संकलन रूप बौद्ध त्रिपिटक-साहित्य के अध्ययन के बिना और उनके प्रमाणों के बिना उनके सम्बन्ध में कुछ भी प्रतिपादन कर देना आत्मनिष्टदृष्टि से चाहे प्रो. बन्दिस्ते उसे सम्यक् मान भी ले, किन्तु वस्तुनिष्ठ दृष्टि से उसे प्रमाणिक नहीं कहा जा सकता है । दूसरे प्रो. बन्दिस्ते ने द्वितीयक श्रेणी के आधुनिक विद्वानों के ग्रन्थों के सन्दर्भ दिये है, वे कितने प्रमाणिक है और बौद्ध मूल ग्रन्थों का उनका ज्ञान कितना प्रामाणिक है, यह भी एक विचारणीय बिन्दु है। भारतीय चिन्तन का एक ही मूल मन्त्र है कि प्रमाण के बिना कुछ भी नहीं लिखना चाहिये । यह सम्पूर्ण कृति मात्र Secondary sources पर आधारित है, अतः इसकी प्रामाणिकता चिन्तनीय अवश्य है। दूसरे यह मात्र बुद्धिवादी दृष्टि से लिखी गई है, अत: इसके निष्कर्ष चाहे उस दृष्टि से कितने ही प्रामाणिक प्रतीत हो, किन्तु एकांगी दृष्टि के कारण उन्हें सर्वात्मना स्वीकार नहीं किया जा सकता है। सामाजिक समरसता जो भगवान बुद्ध के धर्म की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है वह भोगवादी जीवन दृष्टि या भोगवादी बुद्धिवाद से कभी भी प्राप्तव्य नहीं है। रूस ने डण्डे के बल पर जिस सामाजिक समरसता का आह्वान किया था, वह इसलिए विफल हुई, कि उसमें पीछे अध्यात्म, त्याग और समर्पण के जीवन मूल्य नहीं थे ।
प्रो. बन्दिस्ते एक लम्बे समय से मेरे आत्मीय रहे हैं, यह उन्हीं के सहयोग और सम्यक् दिशा निर्देश का परिणाम है कि मै आज इस स्थिति में खड़ा हूँ। अपने आत्मीय जन की निर्मम समीक्षा बहुत कठिन कार्य होता है । यहाँ मै उनसे असहमत होते हुए भी उनकी तार्किक विद्वत्ता का प्रशंसक भी हूँ। प्रो. बन्दिस्ते की यह कृति उस अर्थ में एक महत्त्वपूर्ण कृति सिद्ध होती है जो धर्म को अध्यात्म से पृथक् रहकर भी बुद्ध और उनके धर्म को समझना चाहते हैं । एक समीक्षक का दायित्व पूर्ण करते हुए यदि कहीं लेखक को एवं उनके प्रशंसकों की भावनाओं को कहीं आघात लगा हो, तो हृदय से क्षमा प्रार्थी हूँ।
धर्म मात्र नैतिक आचरण और सामाजिक समायोजन नहीं है, वह तो आध्यात्मिक उन्नयन है, आत्म
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