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292 ग्रंथ समीक्षा
SAMBODHI के रूप में प्रस्तुतीकरण (Buddha : the person) किस सीमा तक सम्यक् होगा, यह विचारणीय है। उन्हें यह तो मानना ही होगा कि बुद्ध सामान्य मानव नहीं है, वे महामानव है, वे मानव जाति में जन्में अवश्य, किन्तु उनका चरित्र अति मानवीय है, वे महा-मानव (supper Human) है । एक आदर्श मानव की कल्पना के बिना हम बुद्ध के बुद्धत्व के प्रति न्याय नहीं कर पायेगे ।
प्रो. बन्दिस्ते ने डॉ. भीमराव अम्बेडकर का अनुसरण करते हुए भगवान बुद्ध के त्याग और संयम का अवमूल्यन किया है। उन्होंने अपनी पुस्तक के प्रथम अध्याय Buddha : the person (पृ. ४-५) में बुद्ध के संन्यास की एक विचित्र बौद्धिक तर्क के आधार पर एक नयी कथा ही गाती है । वे लिखते है - शाक्यों और कोलियों के नदी विवाद में युद्ध के विकल्प को नकारने के कारण शाक्यों की युद्धविचार सभा(war Council) ने उन्हें यह सजा दी जिसके आधार पर उन्हें अपनी पैतृक सम्पत्ति से वंचित कर दिया और इसी कारण बुद्ध ने संन्यास ग्रहण कर लिया । क्या यह बुद्ध का अवमूल्यन नहीं है । प्रो. बन्दिस्ते के अनुसार बुद्ध का संन्यास स्वतः स्फूर्त नहीं है, मात्र दी गई सजा का अनुपालन है। यहाँ वे भगवान बुद्ध के त्याग और वैराग्य का अवमूल्यन कर रहे है ।
इसी क्रम में उन्होंने बुद्ध के 'अनत्तवाद' को भी गलत रूप में प्रस्तुत किया है। अपनी पुस्तक के पृ.६६ पर चार्वाकों के समान तर्क देते हुए और उसे विज्ञान सम्मत सिद्ध करते हुए वे लिखते है - "Thus the Buddha attempted to explain consciousness without invoking any thing like a supernatural or divine soul, How very important this nosoul theory is in the Buddhist way of thinking (page 66)" सर्वप्रथम तो यह भ्रान्ति उनके पालि भाषा के अज्ञान के कारण उत्पन्न होती है। न केवल प्रो. बन्दिस्ते अपितु बौद्ध धर्म-दर्शन के सभी आलोचक इस भ्रान्ति के शिकार हुए हैं । वस्तुतः पालि भाषा के 'अनत' शब्द का अर्थ 'अनात्म' न होकर अपनेपन का अभाव है। अनत का अर्थ है - संसार में कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे अपना कहा जा सके। यह बात ममत्व
और तृष्णा के उच्छेद के लिए है, जो बौद्ध धर्म-दर्शन का प्रमुख उद्देश्य रहा है। यदि 'अनत' का आत्मा नहीं है ऐसा होता तो फिर बुद्ध को आत्म-उच्छेदवाद का समर्थन करने में कोई बाधा नहीं थी। बुद्ध वचन स्पष्ट रूप से यह स्थापित करते है कि वे आत्म-उच्छेदवाद और आत्म-शाश्वतवाद दोनों के समर्थक नहीं है, वे मध्यम मार्गी है। वे न चार्वाकों के समर्थक है और न वेदान्त दर्शन के । उनका आत्मा सम्बन्धी विचार एक तरल आत्मा की अवधारणा को प्रस्तुत करता है, जो परिणमनशील है। इस तथ्य का सम्यक् प्रतिपादन प्रो. हरियन्ना ने अपने ग्रन्थ भारतीय दर्शन में तथा मैनें अपने ग्रन्थ भारतीय आचार दर्शन भाग१ में किया है। विस्तार भय से मै यहाँ इस चर्चा की गहराई में नही जा रहा हूँ। किन्तु 'अनत्त' का सम्यक् अर्थ नहीं समझने के कारण प्रो. बन्दिस्ते के लेखन में अनेक अन्तर-विरोध आ गये हैं - एक
ओर वे Non-soul theory की स्थापना करते हैं तो दसरी ओर बद्ध के पर्व-जन्मों की एवं उनके कर्मसिद्धान्त की एक स्वतन्त्र अध्याय के रूप में विस्तृत चर्चा भी करते है, चाहे वे यह कहकर छुट्टी पाने
का प्रयत्न करे कि - Jataka Kathas should be taken as myths, Jataka tales should be taken as a story and not as a history (Page 76) किन्तु क्या इन स्थापनाओं से हम बुद्ध और उनके धर्म का अवमूल्यन नहीं कर रहे है ।
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