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विजयशंकर शुक्ल
SAMBODHI
संग्रह किया जा चुका था जिसका श्रेय पं. स्थाणुदत्त शर्मा जी को जाता है। इसकी सूची का द्वितीय प्रसून १९६६ में प्रकाशित हुआ जिसमें १ जुलाई १९६३ से ११ जनवरी १९६५ तक प्राप्त १३५२ पाण्डुलिपियों का विवरण है। पुनः पं. स्थाणुदत्त शर्मा ने १९७४ में १४१४ पाण्डुलिपियों की सूची सम्पादित की । १९७८ में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालयसंस्कृत-ग्रन्थमाला द्वितीयम् प्रसूनम् (प्रथम भाग) प्रकाशित हुआ । इस सूची का सम्पादन पं. स्थाणुदत्त जी ने ही किया था । यद्यपि इस सूची में सौ पाण्डुलिपियों का विवरण है फिर भी विषय एवं पाण्डुलिपियों की दृष्टि से उल्लेखनीय है । इसमें सोमयाजिभट्टमाधव विरचित - जैमिनीय न्यायमाला विस्तर, महादेवसरस्वती विरचित तत्त्वानुसन्धान, नकुलविरचित शालिहोत्र, गोस्वामी तुलसीदास विरचित रामायण (रामचरितमानस), महादेववेदान्ति तथा नीलकण्ठसूरिकृत टीका महाभारतम्, भोजराजविरचित राजमार्तण्ड जो पातञ्जल योगसूत्र पर भोज की वृत्ति है, नीतिशास्त्र का प्रचलितग्रन्थ सिंहासनबत्तीसी की पाण्डुलिपि का विवरण भी इस सूची में है। इस क्रम में कुरुक्षेत्र-विश्वविद्यालय भारतीय विद्या संस्थान के हस्तलिखित संग्रहालय के ग्रन्थों का वर्णनात्मक सूची पत्र (प्रथम भाग) का प्रकाशन १९९८ में हुआ जिसे पिनाकपाणिशर्मा 'माध्यन्दिन' अध्यक्ष, हस्तलिखित-संग्रहालय ने सम्पादित किया है। इसके अन्तर्गत १५१३ पाण्डुलिपियों का विवरण है जो वैदिक साहित्य, गीता, माहात्म्य, दूतकाव्य, लघुकाव्य, महाकाव्य, कोष, मन्त्रशास्त्र एवं छन्द शास्त्र के ऊपर हैं । इस संग्रह में ज्योतिष के ग्रन्थ तत्त्वपञ्चाशिका एवं दैवज्ञचिन्तामणिकृत वारीसंहिता भी उपलब्ध
१९६३-२००३ : राष्ट्र में प्राकृत भाषा की पाण्डुलिपियों का विशाल संग्रह गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र
एवं कर्नाटक में उपलब्ध है। गुजरात में प्राच्य विद्या के विशिष्ट अध्ययन के केन्द्र के रूप में लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर की स्थापना की गई जहाँ पर साठ हजार से अधिक पाण्डुलिपियाँ हैं। वैसे तो गुजरात में और भी पाण्डुलिपि संग्रहालय हैं जहाँ लाखों से अधिक पाण्डुलिपियाँ हैं लेकिन उनके सम्पादन एवं अनुसंधान में जो योगदान इस संस्थान ने किया वह अपेक्षाकृत अन्य संस्थाओं में नहीं हुआ । यहाँ की पाण्डुलिपियों की सूची बनाने का कार्य प्रारम्भ करने का श्रेय मुनि पुण्य विजय जी एवं
श्री लक्ष्मणभाई भोजक को जाता है। इस परम्परा का निर्वाह आज तक वहाँ के विद्वान निदेशक डॉ. जितेन्द्रभाई शाह कर रहे हैं जो स्वयं जैन परम्परा में शास्त्र एवं प्रयोग के समन्वय के रूप में हैं एवं पाण्डुलिपियों के वैशिष्ट्य को अच्छी तरह से समझते हैं । इस संस्थान की प्रथम सूची का प्रकाशन १९६३ में Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts in the L. D. Institute of Indology शीर्षक से प्रकाशित हआ जो १९८६ तक L. D. Series संख्या २.५.१५.२० के अन्तर्गत प्रकाश में आये।
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