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Vol. XXXVI, 2013
स्वातन्त्र्योत्तर भारत में पाण्डुलिपियों का संग्रह एवं सूचीकरण
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जो पहली विवरणात्मक सूची प्रस्तुत की वस्तुतः वह एक एक पाण्डुलिपि के ऊपर शोधपत्र के समान है। इस परम्परा एवं मानक का निर्वाह आगे के सूचीकारों को करना चाहिए था । उनकी सूचियों का परिणाम यह रहा कि बिब्लियोथेका इण्डिका ग्रन्थमाला के अन्तर्गत महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन हुआ ।
इस परम्परा एवं पद्धति का पूर्णरूपेण अनुकरण पूना के विद्वानों ने किया ऐसी सूची १९१६ में डेकन कालेज के विद्वानों ने तैयार की थी । इसका परिणाम यह रहा कि इसी तरह की दूसरी सूची २२ वर्षों के बाद प्रकाशित हो सकी जिसे डॉ. एस. बेलवलकर ने संगृहीत किया था । डॉ. पी. के. गोडे तथा डॉ. बेलवलकर ने सूचीनिर्माण के लिये जो मानक उपस्थापित किये वस्तुतः उन्हीं के कारण भण्डारकर
ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट (बी.ओ.आर.आई) की प्रतिष्ठा सम्पूर्ण विश्व में आज तक फैल रही है। लगभग अठारह हजार पाण्डुलिपियों के संग्रह के साथ यह संस्थान अग्रणी बना हुआ है । कारण यही है कि यहाँ एक-एक पाण्डुलिपि की विस्तुत विवरणात्मक सूची उपलब्ध है। यह भी सही है कि इस कार्य को करते हुये लगभग सौ वर्ष बीत चुके हैं और सूचीनिर्माण का कार्य चल रहा है। दूसरी तरफ ऐसे भी संस्थान हैं जिनके संग्रहों में तीस हजार से लेकर दो लाख से अधिक पाण्डुलिपियाँ हैं (यद्यपि इनकी संख्या बीस से कम नहीं है ) लेकिन इनका उपयोग एवं प्रसिद्धि आपके सामने है ।
___यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते भारतीय विद्या चक्रव्यूह में फंस जाती है। विद्या की जो परम्परा शास्त्रविषयक अन्तःसम्बन्ध में निबद्ध थी वह अलग-अलग स्वरूप में परिभाषित होने लगी एवं शास्त्र की परम्परा दूसरे को कम महत्त्वपूर्ण समझने लगी । फलस्वरूप मूल ग्रन्थ सिमटने लगे, भाषा क्षेत्र में बंधने लगी एवं ग्रन्थों की उपादेयता भी इसी सीमा का अनुकरण करने लगी। ऐसे में आवश्यकता थी कुछ ऐसे राष्ट्रीय मञ्चों की जहाँ परम्परा भी हो एवं उदार दृष्टिकोण भी । १९५० के बाद भारत सरकार की ओर से राष्ट्रीय महत्त्व की योजनाएँ एवं संस्थानों को स्थान मिला जिनमें राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठों
की स्थापना के साथ-साथ. संस्कत के राष्टीय विश्वविद्यालय जिसे हम राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के रूप 'में जानते हैं: की स्थापना हुई जिसके आज सम्पर्ण राष्ट में दस से अधिक परिसर हैं एवं पचीस से अधिक शोध संस्थान एवं महाविद्यालय हैं। इनकी स्थापना के पीछे जिस परोक्ष उद्देश्य के साथ इन्हें आगे बढ़ाया जा रहा था वह भी एक सीमित परिवेश लेकर स्थिर हो गया । इन सभी संस्थानों की स्थिति यह रही कि ये अपने संग्रहों की विवरणात्मक सूची भी नहीं प्रकाशित कर सके, जबकि गंगानाथ झा इलाहाबाद परिसर (राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, मानित विश्वविद्यालय) के पास पचास हजार से अधिक पाण्डुलिपिया हैं ।
सम्प्रति इसे संयोग ही समझना चाहिए कि राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान को कई वर्षों की प्रतीक्षा के बाद प्रोफेसर राधावल्लभ त्रिपाठी के रूप में एक ऐसे महनीय व्यक्तित्व का नेतृत्व मिला जिनके मानस में सम्पूर्ण भारतीय विद्या का वही स्वरूप है जैसा कि महर्षि भारद्वाज के समय में शास्त्रीय परम्परा का था। आपने अनेक कार्यों के साथ-साथ यह भी संकल्प लिया है कि सीमित समय में इलाहाबाद परिसर की समस्त पाण्डुलिपियों की विवरणात्मक सूची प्रकाश में आएगी। प्रसन्नता है कि वहाँ के प्राचार्य, प्रोफेसर प्रकाश पाण्डेय जो अनेक लिपियों के ज्ञाता होने के साथ-साथ सम्पादन के क्षेत्र में भी एक प्रतिष्ठित विद्वान हैं; के मार्गदर्शन में यह कार्य शीघ्र सम्पन्न होगा । पच्चीस भागों में वहाँ की सूची निर्मीयमाण है।
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