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विजयशंकर शुक्ल
SAMBODHI
राजाओं के व्यक्तिगत संग्रह अथवा उनके शासनाधिकार में थे, उनका रख-रखाव एवं ग्रन्थ सूची बनाने का कार्य सामान्य रूप से चल रहा था जिसके परिणामस्वरूप भारत में कुछ ऐसी संस्थायें समृद्ध हुई जो कालान्तर में भारत की प्रतिष्ठा का कारण बनी इनमें विशेष रूप से सदर दक्षिण में केरल विश्वविद्यालय के अन्तर्गत ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट एवं मैनुस्क्रिप्ट लाइब्रेरी, मैसूर विश्वविद्यालय के अन्तर्गत
ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, महाराजा तऔर का सरस्वती महल पुस्तकालय; पश्चिम भारत में ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, बड़ौदा तथा राजस्थान में जोधपुर, जयपुर, अलवर एवं बीकानेर के पाण्डुलिपि संग्रहालय, उत्तर में इस समय तक लाहोर प्राच्य विद्या के विशिष्ट अध्ययन केन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित था । मध्यभारत में काशी एवं प्रयाग तथा पूर्वी भारत में दरभंगा, कलकत्ता तथा भुवनेश्वर इसके केन्द्र थे ।
१९५० तक आते-आते पाण्डुलिपियों के महत्त्व एवं इनके योगदान से बौद्धिक जगत् पूर्ण रूप से परिचित हो गया था लेकिन जहाँ तक प्रयास की बात है, इसके अन्तर्गत समग्र चेष्टा न होकर वैयक्तिक प्रयास से ही कार्य आगे बढ़ रहा था । एक ओर इस क्षेत्र में थेयोडेर आउफ़रैष्ट के प्रयास से कटालोगुस् कटालोगोरुम् का प्रकाशन हुआ जिससे एक साथ साठ हजार पाण्डुलिपियों की सूची सामने आई । भारतीय वाङ्मय के संरक्षण एवं संवर्धन की जब भी चर्चा उठेगी प्रोफेसर आउफरैष्ट उसमें अग्रणी नाम होंगे। उनके तीस वर्षों के अथक परिश्रम के बाद १८११ में कटालोगुस् कटालोगोरुम का प्रथम भाग प्रकाशित हुआ एवं द्वितीय भाग बारह वर्षों के बाद प्रकाशित हुआ मेरी दृष्टि में यह सूचीकरण का प्रथम पाण्डुलिपि मिशन था जो थेयोडेर आउफरैष्ट की उपलब्धियों के रूप में देखा जा सकता है।
इस कार्य का परिणाम यह हुआ कि १९३५ में न्यु कटालोगुस् कटालोगोरुम् का कार्य प्रारम्भ हुआ जिसके लिये मद्रास के एस. कुप्पुस्वामी शास्त्री, प्रो. सी. कुन्हन राजा तथा प्रो. वी. राघवन् का स्मरण करना एक पुण्य कर्म का फल है । लेकिन इस योजना के विस्तार एवं पूर्णता के लिये वह प्रयास नहीं किया गया जैसा किया जाना चाहिए था। वस्तुत: आउफरैष्ट के बाद इसे दूसरा भारतीय पाण्डुलिपि सूचीकरण मिशन कहा जाना चाहिए क्योंकि तब तक की प्रकाशित सभी सूचियों को इस कार्य में स्थान मिला। १९३७ से लेकर २००१ तक इसके सोलह खण्ड प्रकाशित हुये थे जिसमें केवल 'म' (१-१९ भाग) अक्षर तक प्रारम्भ होने वाली पाण्डुलिपियों का समावेश हो सका। इसी के साथ इस योजना के विस्तार में गति शिथिल हो गई । इसके दो कारण थे। प्रथम यह कि पिछले पैंसठ वर्षों में पाण्डुलिपि संग्रह के क्षेत्र में जो स्वरूप राजा राजेन्द्रलाल मित्र के समक्ष उपस्थित हुआ था वह कटालोगुस् कटालोगोरुम् के प्रकाशन के बाद ही बदल गया । आशय यह है कि १८७७ में जब राजेन्द्रलाल मित्र ने Asiatic Sociery of Bengal के माध्यम से भारतीय पाण्डुलिपियों के सूचीकरण का कार्य प्रारम्भ किया तो उनकी दृष्टि से लगभग दस हजार पाण्डुलिपिया थी जिनमें सबसे बड़ा संग्रह India House Collection का था जिसमें उस समय ४०९३ पाण्डुलिपियाँ थी तथा थेयोर्डर आउफरैष्ट ने निजी संग्रह में ८५४ पाण्डुलिपियाँ जिसे बाद में प्रो. एच. एच. विल्सन इंग्लैण्ड ले आये । तात्पर्य यह कि राजा राजेन्द्रलाल मित्र ने इन उपलब्ध पाण्डुलिपियों को लेकर सूचीकरण का जो मानक उपस्थित किया उसका निर्वाह आगे की पीढ़ी ने किया होता तो विश्व पटल पर भारतीय ज्ञान एवं परम्परा का चित्र ही अलग होता । इन्होंने मात्र ८७ पाण्डुलिपियों को लेकर
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