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स्वातन्त्र्योत्तर भारत में पाण्डुलिपियों का संग्रह एवं सूचीकरण
विजयशंकर शुक्ल
संस्कृत पाण्डुलिपियों के संग्रह एवं सूचीकरण की जिस परम्परा का श्रीगणेश लगभग चौथी शताब्दी ई. पूर्व में हुआ वह तीसरी शताब्दी तक आते-आते अपना स्वतन्त्र रूप बना चुकी थी । विक्रमशिला (१०वीं शताब्दी), नालन्दा 'चौथी शताब्दी ईस्वी से बारहवीं शताब्दी ईस्वी' के पुस्तकालय के तीनों प्रमाण जिसे हम रत्नसागर, रत्नोदधि एवं रत्नरञ्जक के नाम से जानते हैं, पूरी तरह से प्रतिष्ठित हो चुके थे । इत्सिंग के यात्रा वृत्तान्त से हमें इस विषय पर रोचक सामग्री प्राप्त होती है। इसी क्रम में हमें अनेक पुस्तकालयों का परिचय प्राप्त होता है, जिनमें छठीं शताब्दी में ओदन्तपुर (बिहार); पश्चिम बंगाल में सोमपुर, गुजरात में वल्लभी तथा मध्यकाल में जगदूल एवं गाजीखान पुस्तकालय जिसे बाबर एवं हुमायूँ के द्वारा समृद्ध किया गया तथा बाद में अकबर ने जिसे लगभग १४ हजार पाण्डुलिपियों के संग्रह के रूप में विस्तारित किया । कालक्रम से जहाँगीर एवं औरंगजेब के समय तक इसमें वृद्धि होती रही । बीजापुर के अली अदिलशाह ने भी इस कार्य के लिये अलग से प्रयास किये । इतिहास के पत्रों में ऐसी बहुत सी सूचनायें हमें मिल जायेंगी जहाँ अनेक संग्रहों की जानकारी है लेकिन कदाचित् इनकी सूची हमें नहीं प्राप्त होती है। इन संग्रहों से अलग होकर जो पाण्डुलिपियाँ उपहार स्वरूप दूसरी जगह स्थानान्तरित हुई उसका भी परिचय किसी .न किसी रूप में हमें प्राप्त हो जाता है । जैसे नालन्दा के संग्रह में उपलब्ध अनेक ग्रन्थों का अनुवाद चीनी एवं तिब्बती भाषा में मिलता है । इस तरह मध्यकाल में कई ग्रन्थों का संस्कृत भाषा से फ़ारसी में अनुवाद हुआ रामायण एवं महाभारत जिसके प्रमुख उदाहरण हैं । महाभारत जिसे फ़ारसी में रज्मनामा के नाम से प्रसिद्धि मिली, की पाण्डुलिपियाँ जयपुर के सिटी पैलेस संग्रहालय में तथा राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में देखी जा सकती हैं ।
सूचीकरण के इतिहास के क्रम में जैसा कि मैने इस लेख के प्रथम भाग में चर्चा की है कि मध्यकाल में एक ओर 'बृहट्टिप्पणिका' (गुजरात में प्राप्त) तथा दूसरी ओर सर्वविद्यानिधान कवीन्द्राचार्य की सूची (काशी में प्राप्त) विशेष उल्लेखनीय हैं । यदि हम मध्यकाल के टीकाकारों की टीकाओं पर दृष्टि डालें तो पता लगता है कि प्राय: टीकाकार, उस ग्रन्थ से सम्बन्धित पूर्ववर्ती आचार्यों के मन्तव्य को जानने के लिये, उनके ग्रन्थों को संगृहीत एवं अध्ययन करने के उपरान्त ही अपनी टीकाओं की उपादेयता सिद्ध करते हैं। लेकिन दुर्योगवश ऐसी किसी सूची की हमें जानकारी नहीं है। इसका फल यह रहा कि भारतीय मनीषा का विस्तार उस गति से नहीं हुआ जैसा कि होना चाहिए था । एक बात अवश्य हुई। जो संग्रह
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