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________________ 182 विजयशंकर शुक्ल SAMBODHI १९८० तक आते-आते पाण्डुलिपियों के भारतीय संग्रह के साथ-साथ कई वैदेशिक संग्रह भी सामने आये एवं सूचियों का प्रकाशन भी आगे बढ़ता रहा लेकिन अब आवश्यकता एक ऐसे केन्द्र की थी जो पाण्डुलिपियों के राष्ट्रीय संग्रह के साथ-साथ शास्त्र विषयक अन्तःसम्बन्ध के महत्व को परिभाषित कर सके क्योंकि अब तक पाण्डुलिपियाँ ज्ञान की वस्तु के साथ-साथ पुरातत्त्व के रूप में परिभाषित होने लगीं। यह चिन्तन बौद्धिक चेतना की कोई सामान्य उपज नहीं हो सकती थी इसके लिये आवश्यकता थी एक ऐसी मनीषी की जिसके अन्तःकरण में ऋषि परम्परा, जो एक तरफ ऋग्वैदिक ऋषियों के हृदय से गुनगुनाती हुई महाभाष्यकार भगवान पतञ्जलि के हृदय में प्रविष्ट हुई, तो दूसरी तरफ श्रौत विद्या के निष्णात आचार्य बौधायन, आपस्तम्ब, मानव और कात्यायन आदि के माध्यम से आगे बढ़ती हुई भरतमुनि के लिये नाट्यशास्त्र की रचना का हेतु बनी तो दूसरी ओर लगध एवं आर्यभट जैसे अन्वेषकों के लिये नक्षत्र विद्या को प्रवर्तित करने का परिणाम । यह वही समय था जब मतङ्गमुनि जैसे आचार्यों ने संगीत विद्या को एक नया आयाम दिया तो भारतीय वास्तु एव शिल्प की प्रतिष्ठा भी इसी परम्परा की देन थी। इन्हीं सब को एक सूत्र में पुनःएकीकरण एवं अन्तःसम्बन्ध की प्रक्रिया का सूत्रपात करना था। इसके लिये आवश्यकता थी एक ऐसे ऋषिकल्प की जिसमें भारतीय मनीषा के आधुनिक आलोचकों जैसे प्रो. ए. कुमारस्वामी, प्रो. वासुदेवशरण अग्रवाल, प्रो. सुनीतिकुमार चटर्जी तथा पण्डित क्षेत्रेशचन्द्र चटोपाध्याय जैसे आचार्यों की ज्ञान एवं विचार परम्परा का संमिश्रण हो । यह सुखद संयोग है कि भारत को डॉ.(श्रीमती) कपिला वात्स्यायन के रूप में एक सारस्वत साधिका की उपलब्धि हुई जिनके अब तक की सारस्वत साधना एवं ज्ञान के फल के रूप में 'इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र' की स्थापना, (१९ नवम्बर, १९८७) को देखा जाना चाहिए । इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र की आत्मा का मूल बिन्दु पाण्डुलिपि है । विश्व में यह प्रथम केन्द्र है जहाँ पाण्डुलिपियों को इतने व्यापक परिदृश्य में देखा गया । पाण्डुलिपियों के विषय वैविध्य के बारे में जो विद्वान जानते हैं उन्हें पता है कि यह परम्परा जितनी शास्त्रीय है उतना लोक के आचार, विचार एवं व्यवहार से भी सम्बन्धित है । इसलिये इनके अध्ययन में लोक की उपादेयता हो, सभी पाण्डुलिपि संग्रहालयों की उपादेयता हो, सभी पूर्ववर्ती आचार्यों के विचार तथा मूलग्रन्थों की उपस्थिति एक स्थान पर हो तथा उनका अंकन, वाचन एवं मञ्चन भी हो, इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र में चार विभागों की स्थापना हुई जिन्हें हम, कलाकोश, कलानिधि, जनपद-सम्पदा एवं कलादर्शन के रूप में जानते हैं। उपर्युक्त उद्देश्य की प्राप्ति के लिये केन्द्र के चारों विभाग एक सूत्र में बंधकर काम करने लगे और परिणाम यह हुआ कि कपिलाजी का चिन्तन साकार होने लगा । एक तरफ दो लाख पचास हजार पाण्डुलिपियों की माइक्रोफिल्म तथा लगभग पचास हजार पाण्डुलिपियों की डिजिटल प्रतिलिपि के रूप में विशाल भण्डार संगृहीत हुआ, जिसके पूरक अध्ययन के लिये एक विशाल सन्दर्भ पुस्तकालय जिसमें अभी तक एक लाख चालीस हजार पुस्तकें हैं तथा इसी क्रम में पाण्डुलिपियों में उपलब्ध पचास हजार चित्रों का स्लाइड के रूप में संग्रह करके केन्द्र ने किसी भी विद्वान के लिये एक ऐसे ज्ञान भण्डार की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520786
Book TitleSambodhi 2013 Vol 36
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2013
Total Pages328
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size7 MB
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