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________________ 176 अल्पना जैन SAMBODHI है पूर्व में जो दर्पण का उदाहरण दिया है और यह कहा कि दर्पण में जो अग्नि प्रतिबिम्बित ही रही है वह स्वयं उसकी उपादानगत योग्यता से निर्मित है, उसमें अग्नि निमित्त मात्र है, वह कर्ता नहीं । इसी प्रकार ज्ञान का स्वभाव भी स्व-पर प्रकाशक है । जीव संसार अवस्था में कर्मोदय से बंधा हुआ है एवं पुण्य-पाप रूप कर्मोदय की अवस्था सुख-दुख का अनुभव करता है लेकिन जो उपर्युक्त सिद्धान्त को जीवन में आत्मसात कर लेता है वह कर्मोदय की अवस्था में सुख-दुख का वेदन न करके अपने को ज्ञान-मात्र आत्मा का अनुभव करता है, क्योंकि ज्ञान में झलकते हुए ज्ञेय पदार्थों से जुड़ना अथवा उससे भिन्न अनुभव करना जीव की स्व-स्वतंत्रता है। उसमें ज्ञेय निमित्त मात्र है कर्ता नहीं । जीवन के हर प्रसंग में ऐसा विचार किया जा सकता है कि देह स्त्री पुत्रादि धन-धान्य, मकान-दुकान, घोड़ा-गाड़ी से सब ज्ञान के ज्ञेय मात्र है उनमें सुख-दुख की कल्पना जीव स्वयं की मिथ्या बुद्धि है । ज्ञेय सुख अथवा दुख का कारण नहीं ऐसा मानने से जीवन में मानसिक शांति, समत्वभाव, समरता का उद्भव होता है.। इस भाव को जैन भजन में भी व्यक्त किया गया है - ज्ञान का ज्ञेय बनाते चलो, समता का भाव बढ़ाते चलो। मारग में आये जो संकल्प-विकल्प, सबकी ही पर में खपाते चलो। आचार्य अमृतचन्द्र ने की १५वीं गाथा की 'आत्मख्याति' टीका में ज्ञानी व अज्ञानी जीव की इस सिद्धान्त सम्बन्धी मान्यता का उदाहरण सहित चित्रांकन करते हुए कहा है कि - "ज्ञान की अनुभूति ही आत्मा की अनुभूति है। सामान्य ज्ञान के अविर्भाव (प्रगटपन) और विशेष ज्ञेयाकार ज्ञान के तिरोभाव(आच्छादन) से जब ज्ञानमात्र का अनुभव किया जाता है तब ज्ञान प्रगट अनुभव में आता है, तदापि जो अज्ञानी है, ज्ञेयों में आसक्त है उन्हें वह स्वाद में नहीं आता । वह प्रगट दृष्टान्त द्वारा बतलाते हैं। जैसे-अनेक प्रकार के शाकाहारी भोजनों के सम्बन्ध से उत्पन्न सामान्य लवण के तिरोभाव और विषेश लवण के अविर्भाव से अनुभव में आने वाला जो (सामान्य का तिरोभाव और स्वादभेद से भेदरूप विशेष रूप) लवण है उसका स्वाद नहीं आता । और जो ज्ञानी है, ज्ञेयों में आसक्त नहीं है, वे ज्ञेयों से भिन्न एकाकार ज्ञान का ही आस्वाद लेते हैं, जैसे भाकों से भिन्न-नमक की आत्मा है सो ज्ञान है"।८ यहाँ पर आचार्य ने भाक मिश्रित लवण का दृष्टान्त देते हुए अपनी बात स्पष्ट की है कि भाक तथा स्वाद आता है किन्तु ज्ञानी को सदा ही ज्ञान सामान्य की स्मृति हैं । मेरा ज्ञान ज्वर तथा देहाकार परिणमित होने पर भी मैं देह तथा ज्वर से भिन्न ज्ञान ही हूँ ज्ञान को देह नहीं और कभी ज्वर चढ़ता ही नहीं । अतः ज्ञान के ज्वराकर और देहाकार परिणाम भी ज्ञानी मात्र ज्ञान की अनुभूति है । इसमें यह तर्क अपेक्षित नहीं है कि यदि निरंतर ज्ञान सामान्य की दृष्टि रहे तो फिर ज्ञान की अनुभूति है। इसमें यह तर्क अपेक्षित नहीं है कि यदि निरंतर ज्ञान सामान्य की दृष्टि रहे तो फिर ज्ञान के विषेशों का क्या प्रबंध के ही वे ज्ञान में झलकते रहते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि ज्ञानी अज्ञानी की मान्यता में भेद होने से ज्ञानी भांति समरसता का अनुभव करता है एवं अज्ञानी आकुलता व्याकुलता वेदन करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520786
Book TitleSambodhi 2013 Vol 36
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2013
Total Pages328
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size7 MB
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