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________________ Vol. XXXVI, 2013 ज्ञान- ज्ञेय मीमांसा - जैनदर्शन का वैशिष्ट्य अनंत प्रवाह क्रम में नियम क्षण में हुई हैं। ज्ञान के सामने घड़ा है, अतएव घट ही प्रतिबिम्बित हुआ यह बात तर्क और सिद्धान्त की कसौटी पर भी सिद्ध नहीं होती । यदि उसे सिद्धान्तः स्वीकार कर लिया जाय तो लोकलोक तो सदा विद्यमान है केवलज्ञान क्यों नहीं होता ? पुनः यदि पदार्थ ज्ञान का कारण हो तो फिर सीप के दर्शन में चांदी की भ्रांन्ति क्यों हो जाती है अथवा वस्तु के न होते हुए भी कोश में मच्छर का ज्ञान कैसे हो जाता है तथा भूत और भविष्य की पर्यायें तो वर्तमान में विद्यमान नहीं है उनका ज्ञान कैसे हो जाता है | अतः ज्ञेय से ज्ञान की सर्वांगण निरपेक्षता निर्विवाद है । १५ एक ज्ञेय पदार्थ को देखकर जीवों के भाव भिन्न-भिन्न होते हैं यदि ज्ञेय पदार्थ से ज्ञान होता तो सभी के एक से भाव होने चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं होता । इस बात को एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है – रास्ते में मरी पड़ी हुई एक वेश्या को साधु, युवक चोर एवं कुत्ता देखता है । साधु को उसे देखकर विचार आता है कि इस वेश्या में अपना जीवन धर्म में न लगाकर विषय भोगों में व्यर्थ ही गंवा दिया | युवक वेश्या को देखकर विचारता है कि वह कितनी खूबसूरत है यदि पहले पता होता तो वह उसके पास जरूर जाता । चोर को उसके आभूषणों को देखकर विचार आता है यदि सब चले जाते तो मैं झट से उसके आभूषण उतार लेता । कुत्ता उसे मृतक जानकर विचार करता है कि कैसे मौका मिले मैं उसके मांस का भक्षण कर लूं । इस उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि ज्ञेय से ज्ञान नहीं वरन् ज्ञान स्वतः अपनी योग्यता से अपने ही स्वकाल में होता है ज्ञेय की किसी प्रकार की पराधीनता उसे नहीं है । भजन में भी यही बात कही गयी है। जो ज्ञान जानता है वह ज्ञान की ही रचना | वह ज्ञान से निर्मित है सब ज्ञान- ज्ञान दिखता ॥ 175 'उपरोक्त तथ्यों से यह स्पष्ट करने का प्रयास यह है कि ज्ञान सद, अहेतुक, निरपेक्ष होता है उसकी स्वतंत्र सत्ता है उसकी सत्ता ज्ञेयों के आधीन नहीं है, परन्तु इससे यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि जैनदर्शन बौद्धौं की भांति बाह्य वस्तु अथवा ज्ञेय पदार्थों की सत्ता को स्वीकृत नहीं करता । वह उनकी सत्ता को स्वीकृत करते हुए ज्ञेय को ज्ञान का कर्ता अस्वीकृत करता है । Jain Education International ६. ज्ञान - ज्ञेय स्वभाव को समझने ज्ञान से जीवन में लाभ ज्ञेय स्वभाव को समझने के पश्चात् ज्ञान की अद्भुत सामर्थ्य का ज्ञान होता है कि ज्ञान अपने में तन्मय रहकर परपदार्थों को अतन्मयप जानता है, उसमें प्रविष्ट नहीं होता । स्वयं ज्ञेय भी उसमें प्रविष्ट नहीं होते । दोनों की सत्ता भिन्न एवं पूर्णतः स्वतंत्र है । ज्ञान की उस ज्ञेयाकार पणिमन रूप अवस्था में स्वयं को मात्र ज्ञानरूप अनुभव करना सुखशांति प्राप्ति का मार्ग है यह स्वतंत्रता की चरम अवस्था है इसे जीवन में अपनाने से हर्श - विषाद इष्टअनिष्ट, कर्तत्त्व - ममत्व की दुख रूप बुद्धि / सोच का अभाव हो जाता है । जैनदर्शन दो पदार्थों/द्रव्यों के बीच मात्र निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध को स्वीकृत करता है, एवं कर्ता-कर्म सम्बन्ध को अस्वीकृत करता For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.520786
Book TitleSambodhi 2013 Vol 36
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2013
Total Pages328
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size7 MB
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