SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 174 अल्पना जैन SAMBODHI अर्थात् केवलज्ञान में सारा विश्व झलकने पर भी आत्मा अपने ज्ञान का ही वेदन करता है। इसलिए यह कहा जाता है : व्यवहार से प्रभु केवली सब जानते अरू देखते । निश्चयनयात्मक द्वार से निज आत्म को प्रभु पेखते ।१२ अर्थात् 'व्यवहार नय केवली भगवान लोकालोक को जानते है एवं निश्चयनय से केवल अपनी आत्मा को जानते है। जैनदर्शन कर्ता-कर्म के अभेदत्व को स्वीकार करता है । वह एक ही वस्तु में कर्ता-कर्म सम्बन्ध को स्वीकृत करता है । दो वस्तुओं के मध्य कर्ता - कर्म का अभेदत्व उसे स्वीकृत नहीं है ।१३ ज्ञान एवं ज्ञेय भी कर्ता-कर्म का अनन्यत्व है, भेद नहीं । इस तथ्य का आचार्य अमृतचंद् कृत 'समयसार'की आत्मख्याति टीका में दृष्टान्त के द्वारा स्पष्ट किया है - "जैसे दाह्म जलने योग्य पदार्थ के आकार की होने से अग्नि को दहन कहते हैं तदापि उसमें दाह्म कृत अशुद्धता नहीं होती, उसी प्रकार ज्ञेयाकार होने से उस ज्ञान की 'ज्ञायकता' प्रसिद्ध है। तथापि उसमें ज्ञेयकत अशद्धता नहीं है, क्योंकि ज्ञेयाकार अवस्था में जो ज्ञायक रूप से ज्ञात हआ है वह स्वरूप प्रकाशन की अवस्था में भी दीपक की भांति कर्ताकर्म का अन्यत्व(एकता) होने से ज्ञायक ही है स्वयं जाननेवाला है इसलिए स्वयंकर्ता और अपने को जाना इसलिए स्वयं ही कर्म है। - दीपक घटपटादिको प्रकाशित करने की अवस्था में भी दीपक है और अपने को अपनी ज्योति रूप शिखा को प्रकाशित करने की अवस्था में भी दीपक ही है, अन्य कुछ नहीं, उसी प्रकार ज्ञायक को भी समझना चाहिए । ज्ञान भी पर पदार्थों को प्रकाशित करने की अवस्था में ज्ञान ही है स्वयं को प्रकाशित करने की अवस्था में ज्ञान ही हैं ऐसी ज्ञान-ज्ञेय की अभेदता है ।१४ पूर्वाक्त गाथा के भाव स्पष्टीकरण करते हुए आचार्य आगे कहते है कि आत्मा को ज्ञायक नाम भी ज्ञेय को जानने से दिया जाता है, क्योंकि ज्ञेय का प्रतिबिम्ब झलकता है तब ज्ञान में वैसा ही अनुभव होता है तथापि उसमें ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं है, क्योंकि जैसा ज्ञेय ज्ञान में प्रतिभासित हुआ है वह ज्ञेय का अनुभव न होकर ज्ञायक का अनुभव होने से ज्ञायक ही है। यह जो जानने वाला है सो में ही हूँ, अन्य कोई नहीं ऐसा अपने अभेद रूप अनुभव करता है तब इस जानने रूप क्रिया का कर्ता स्वयं ही है, जिसे जाना वह कर्म भी स्वयं ही है यह निशचयनय को असत्यार्थ कहने से यह नहीं समझना चाहिए कि आकाश के फूल की भांति वस्तुधर्म सर्वथा ही नहीं है ऐसा सर्वथा एकान्त मानना मिथ्यात्व है। इसी प्रकार ज्ञान में कोई ज्ञेय अथवा घट प्रतिबिम्बित होता है तो ज्ञान घटाकार तो अपनी नियत भाक्ति से अपने नियत समय में उत्पन्न हुआ है, मिट्टी का घट तो पहले से विद्यमान था, किन्तु ज्ञान का घट पहले नहीं था । ज्ञान ने अपने क्रमबद्ध प्रवाह में अपना घट अब बनाया है और उस घटाकार की रचना में ज्ञान ने मिट्टी के घट का अनुकरण नहीं किया है। ज्ञान में घटाकर की रचना, ज्ञान के अनादि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520786
Book TitleSambodhi 2013 Vol 36
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2013
Total Pages328
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy