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Vol. XXXVI, 2013 ज्ञान-ज्ञेय मीमांसा - जैनदर्शन का वैशिष्टय
173 जिस प्रकार आँख रूपवान पदार्थों में प्रवेश नहीं करती और रूपी पदार्थ आँख में प्रवेश नहीं करते तो भी आँख रूपी पदार्थ के ज्ञेयोंकारों को जानने के स्वभाव वाली है और रूपी पदार्थ स्वयं जानने में आने के स्वभाव वाले हैं उसी प्रकार आत्मा समस्त ज्ञेयाकारों को जानने के स्वभाव वाला है । ऐसी ज्ञान की अद्भुत सामर्थ्य है।
इसी प्रकार का भाव आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में व्यक्त किया है :
"ज्ञान नेत्र की भांति अकारक व अवेदक ही है । यह नेत्र की भांति मात्र देखता जानता है । अर्थात् उसका ज्ञेय का कर्ता भोक्ता नहीं है।"
इस सन्दर्भ में ऐसा तर्क प्रस्तुत किया जा सकता है कि यदि बाह्य अग्नि दर्पण की अग्नि का कारण नहीं है और दर्पण में उस समय अग्न्याकार परिणमन की योग्यता है तो फिर अग्नि न हो तब भी दर्पण को अग्नि को प्रतिबिम्बित करना चाहिए । अथवा अग्नि की समक्षता में भी दर्पण में अग्नि प्रतिभासित न होकर कुछ अन्य प्रतिभासित होना चाहिए। यह विचित्र तर्क है, यह तो दर्पण में प्रतिबिम्बित न हो तो हम दर्पण किस वस्तु को कहेंगे । पुनः यदि अग्नि के अभाव में भी दर्पण में अग्नि प्रतिबिम्बित हो अथवा अग्नि की समक्षता में दर्पण में अग्नि के स्थान पर वह प्रतिबिम्बित न हो तो दर्पण की प्रमाणिकता ही क्या रह जाएगी.? अत: अग्नि का भी होना और दर्पण में भी सांगोपाग प्रतिबिम्बित होना यही वस्तु स्थिति है । इसमें परस्पर या सापेक्षता के लिए किचिंत मात्र अवकाश नहीं है इस प्रकार दर्पण और उसका अग्न्याकार अग्नि से सर्वथा पृथक् तथा निलिप्त ही रह जाता है । ५. ज्ञान का तत्-अतत् स्वभाव :
दर्पण के समान ज्ञान भी ज्ञेय से अत्यंत निरपेक्ष रहकर अपने ज्ञेयाकार (ज्ञानाकार अर्थात् ज्ञेय के आकार जैसी अपनी ज्ञान की रचना) का उत्पाद-व्यय करता है । ज्ञान में ज्ञेय के इस अभाव को ज्ञान का अतत् स्वभाव कहते हैं। और उनके ज्ञेयों के आकार पारिणमित होकर भी प्रत्येक ज्ञेयाकार में - ज्ञानत्व की धारावाहिकता कभी भंग नहीं होती। अर्थात ज्ञान के प्रत्येक ज्ञेयाकार में ज्ञान सामान्य का अन्वय
अखण्ड तथा अपरिवर्तित है। ज्ञान के प्रत्येक ज्ञेयाकार में ज्ञान की प्रतिध्वनित होता हैं इसे आगम में ज्ञान का तंत् स्वभाव कहा जाता है ।।
__ अनंत लोकालोक रूप चित्र विचित्र ज्ञेयाकारों को नियत समय में उत्पादन करने में ज्ञान स्वतंत्र . . है इसमें इसे लोकालोक की कोई अपेक्षा नहीं । न ही लोक से उसे कुछ लेना पड़ता है और न कुछ -देना पड़ता है । ज्ञान में जो लोकालोक प्रतिबिम्बित होता है । ज्ञान के उस ज्ञेय जैसे आकार की रचना
ज्ञान की उत्पादन सामग्री से होती है । लोकालोक रूप निमित्त की उसमें रंच मात्र आवश्यकता नहीं है। जब यह कहा जाता है कि ज्ञान लोकालोक को जानता है यह कथन व्यवहारनय का है अतः व्यवहार रूप ज्ञान से अपने ज्ञेयाकारों को ही जानता है निश्चय से अपने को ही जानता है यही परिनिष्ठत कथन है, कहा भी है :
सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि निजानंद रस लीन ।११
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