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अल्पना जैन
SAMBODHI
३. ज्ञेय का स्वरूप - जिस प्रकार ज्ञान (पर की अपेक्षा से रहित) निरपेक्ष होकर वस्तु का अवलोकन करता है, उसी प्रकार ज्ञेय भी (जिसमें जड़ व चेतन समस्त वस्तुयें सम्मिलित है) अपने में निहित प्रमेयत्व गुण की भाक्ति के कारण अर्थात् ज्ञान का ज्ञेय बनने की सामर्थ्य के कारण सहज ही ज्ञान का विषय बन जाता है। अतः ज्ञेय स्वयं अपनी भाक्ति सामर्थ्य के ज्ञान का विषय बनता है उसे अपने का अवलोकन कराने (जनाने) के लिए ज्ञान की आवश्यकता नहीं । इस प्रकार जड़ ज्ञेय वस्तुयें भी अपनी प्रमेयत्व भाक्ति की धारक होने के कारण सरज ही ज्ञान विषय बनती है। अत: अचेतन वस्तुयें भी पूर्ण स्वाधीन एवं स्वतंत्र है । जड़ वस्तु में ज्ञान में झलकने की सामर्थ्य है और ज्ञान में उन्हें झलकाने की स्वतंत्र सामर्थ्य हैं । ऐसी वस्तु की अद्भुत व स्वतंत्र व्यवस्था है।
४. ज्ञान व ज्ञेय में अन्वयव्यतिरेक सम्बन्ध का अभाव - जैनदर्शन ज्ञान व ज्ञेय में अन्वयव्यतिरेक सम्बन्ध का निषेध करता है, क्योंकि उसकी मान्यता है कि यह आवश्यकता नहीं हैं ज्ञेय के होने पर ही ज्ञान हो और ज्ञेय के अभाव में ज्ञान न हो । एवं ज्ञेय जैसा ज्ञान हो यह भी जरूरी न है। आचार्य माणिक्यनंदी ने इस सम्बन्ध का निषेध करते हुए युक्ति दी है कि - "पदार्थ और प्रकाश ज्ञान के कारण नहीं, क्योंकि ज्ञान का पदार्थ और प्रकाश के साथ अन्वय व्यतिरेक रूप संबंध का अभाव है। जैसे कोष अर्थात् बालों में भ्रम से होने वाले मच्छर ज्ञान के साथ तथा नक्तंचर अर्थात् रात्रि में चलने वाले उल्लू आदि को रात्रि में होने वाले ज्ञान के साथ देखा जाता है अर्थात् किसी पुरुष के उड़ते हुये केषों (बालों) में मच्छर का भ्रम एवं उल्लू को अंधकार में भी दिखाई देना यह बतलाता है कि पदार्थ व प्रकाश ज्ञान के कारण नहीं है ।" पदार्थ और प्रकाश ज्ञान के विषय है, जो विषय होता है, वह पदार्थ को उत्पन्न नहीं करता, बल्कि ज्ञान के द्वारा जाना जाता है।
यदि ज्ञेय के कारण ज्ञान हो तो आकाश में गमन करता हुआ हवाई जहाज एवं एयरपोर्ट पर स्थित हवाई जहाज समान दिखाई देना चाहिए, पर ऐसा नहीं होता । अथवा आकाश में उड़ती हुई पतंग में कबूतर का भ्रम नहीं होना चाहिए।
इसी ग्रन्थ में आचार्य ज्ञान की अर्थजन्यता और अर्थकारकता का खण्डन करते हुए कहते हैं कि पदार्थ से उत्पन्न नहीं होकर भी ज्ञान पदार्थ का प्रकारक लेता है दीपक के समान । जैसे-दीपक पदार्थ का मात्र प्रकाशित करता है, उत्पन्न नहीं करता । कहा भी गया है - "आत्मा ज्ञान प्रमाण है ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है, ज्ञेय लोकालोक है इसलिए ज्ञान सर्वगत है - सर्वव्यापक है।"
आचार्य अमृतचन्द्र प्रवचनसार की तत्वप्रदीपिका टीका में अत्यंत सरल व सुन्दर तरीके से प्रगट करते हैं कि "आत्मा(ज्ञान) और पदार्थ स्वलक्षणभूत प्रथ्कत्व (पृथक् - पृथक्) होने के कारण एक दूसरे में नहीं वर्तते, परन्तु उनमें मात्र नेत्र और रूपी पदार्थ की भांति ज्ञान-ज्ञेय स्वभाव सम्बन्ध होने से एक दूसरे में प्रवृत्ति पायी जाती है जैसे-नेत्र और उसके विषयभूत रूपी पदार्थ परस्पर प्रवेश किये बिना ही ज्ञेयाकारों को ग्रहण और समर्पण करने के स्वभाव वाले हैं उसी प्रकार आत्मा और पदार्थ एक-दूसरे में प्रविष्ट हुए बिना ही समस्त ज्ञेयाकारों के ग्रहण और समर्पण के स्वभाव वाले हैं।"
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