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________________ Vol. XXXVI, 2013 ज्ञान- ज्ञेय मीमांसा - जैनदर्शन का वैशिष्ट्य अजीव है। जीव द्रव्य में पाया जानेवाला 'ज्ञानगुण' उसकी ऐसी विशेषता है जो उसे अन्य द्रव्यों तथा अपने में ही पाये जानेवाले अन्य गुणों से उसे पृथक् सिद्ध करता है I लोक में भी किसी एक विशेषता की अपेक्षा से किसी व्यक्ति को सम्बोधित करने की पद्धति है जो उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व कर सके। जैसे - किसी व्यक्ति को न्यायाधीश के नाम से सम्बोधित करते हैं । न्यायाधीशत्व उसकी ऐसी विशेषता है जिससे वह सब मनुष्यों से भिन्न पहचाना जाता है, यद्यपि उसमें अन्य सामान्य मनुष्यों जैसी व्यक्तिगत अपनी अनेक विशेषतायें भी है वह केवल न्यायाधीश ही नहीं है, किन्तु न्यायाधीश संज्ञा में उसका सम्पूर्ण सामान्य विशेष ही है, किन्तु उसके बिना जीव को पहचाना ही नहीं जा सकता है। ज्ञान का व्यापार प्रगट अनुभव में आता है । ज्ञान न केवल आत्मा वरन् जगत् 'अस्तित्व की सिद्धि ज्ञान ही करता है। ज्ञान ही आत्मा का सर्वस्व है उसके बिना विश्व में आत्मसंज्ञक किसी चेतन तत्व की कल्पना ही व्यर्थ है इसी कारण आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में आत्मा को 'ज्ञान मात्र' ही कहा है । २. ज्ञान का स्वरूप : ज्ञान का स्वभाव अर्थात् वस्तु का सर्वांग प्रतिभासन करना है, क्योंकि स्वभाव असहाय, अकृत्रिम एवं निरपेक्ष होता । ज्ञान भी जगत् से पूर्ण निरपेक्ष होता है। ज्ञान भी जगत् से पूर्ण निरपेक्ष एवं असहाय रहकर अपना जानने का व्यापार करता रहता है अपने जानने के कार्य के संपादन हेतु उसे जगत् से कुछ भी आदान-प्रदान नहीं करना पड़ता है। ज्ञान का स्वभाव दर्पणवत है जिस प्रकार दर्पण के अपने स्वच्छ स्वभाव से वस्तुओं को प्रतिबिम्बित करता है । दर्पण में वस्तुओं के अनेक आकारप्रकार बनते व बिगड़ते रहते हैं, किन्तु दर्पण प्रत्येक परिवर्तन में अप्रभावित रहता है साथ ही उन आकारप्रकारों से दर्पण की स्वच्छता को आंच नहीं आती है । उदाहणार्थ- दर्पण में अग्नि प्रतिबिम्बित होती है । किन्तु अग्नि के प्रतिबिम्ब से न तो दर्पण गर्मं होता है और न ही टूटता हैं क्योंकि में जो अग्नि दिखाई देता है वह दर्पण की स्वच्छता के कारण प्रतिबिम्बित होती है अथवा दर्पण के अपने प्रकाशत्व स्वभाव के कारण दिखाई देता है । दर्पण में प्रतिबिम्बित अग्नि की रचना के नियामक उपादान दर्पण के अपने स्वतंत्र है। वस्तुतः दर्पण के स्वच्छ स्वभाव में यदि अग्न्याकार परिणमन की भाक्ति की योग्यता न हो तो सारा विश्व मिलकर भी उसे अग्न्याकार नहीं कर सकता और यदि स्वयं दर्पण में अग्न्याकार होने की भक्ति व योग्यता है तो फिर उसे अग्नि की क्या अपेक्षा है । 171 उक्तं च 'जो भाक्ति है उसे भक्ति नहीं दी सकती और जो भाक्तिमय है उसे अपनी भक्ति के प्रयोग में किसी की अपेक्षा नहीं होती। यदि दर्पण में प्रतिबिम्बित अग्नि का कारण बाह्य अग्नि है तो पाषाण में भी अग्नि प्रतिबिम्बित होनी चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं होता अग्नि की रचना की सम्पूर्ण सामग्री दर्पण के अपने अक्षय कोश में ही पड़ी है उसे किसी से कुछ उधार नहीं लेना पड़ता । ऐसे अद्भुत ही ज्ञान की अपनी स्व पर प्रकाशक सामर्थ्य है जिसके कारण जो बाह्य ज्ञेय ज्ञान में प्रतिबिम्बित होता है वह स्वयं उसके प्रकाशत्व सामर्थ्य के कारण प्रतिबिम्बित होता है ज्ञेय के कारण नहीं । जैसे- सूर्य जगत् को प्रकाशित अथवा स्वयं को प्रकाशित करें दोनों अवस्थाओं में वह प्रकाशमय ही हैं और दौनों अवस्थायें ★ एक साथ ही हैं, उसी प्रकार ज्ञान भी स्व व पर प्रकाशक दोनों अवस्थाओं में ज्ञान ही है । Jain Education International .... For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.520786
Book TitleSambodhi 2013 Vol 36
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2013
Total Pages328
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size7 MB
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