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Vol. XXXVI, 2013
शाकुन्तल की प्राकृतविवृति एवं प्राकृतच्छायायें
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(आज्ञार्थक) रूप है ऐसी भ्रान्ति को जन्म दिया होगा । अब, आवृत्त, परितोष कहेहि । ऐसी उक्ति का संस्कतछायानवाद करने का प्रसंग आया होगा तब. राघवभट जैसे टीकाकर ने भी यह ध्यान में नहीं लिया
हि जैसे मागधी क्रियापद का महाराष्टीकरण होने के बाद यह कहेहि रूप पाण्डलिपियों में चल पडा है । उसका छायानुवाद कथय के रूप में न करके, कथयति के रूप में ही करना अनिवार्य था । लेकिन महाराष्ट्री-प्राकृत के स्वरूप को हि मूल मान लेने के कारण कहेहि का अनुवाद कथय पर दिया गया और परिणामत: पूरा संवाद का क्रम विसंगति के चक्कर में फंस गया । यहाँ शर्मादेन जैसे अनुवाद से. अथवा कथयति जैसे अनुवाद से हि मूल उक्ति का स्वारस्य सुसंगत हो सकेगा ।
इन उदाहरणों के अभ्यास के बाद कुछ निरीक्षण ऐसे प्राप्त होते है कि - इन प्राकृतविवृति एवं प्राकृतछायाओं में भले ही प्राकृत उक्तिओं का शुद्ध व्याकरण-सम्मत अनुवाद न उपलब्ध हो, अर्थात भले ही इन में केवल छायानुवाद ही हो फिर भी इन सामग्री का उपयोग करके १. अद्यावधि अनुल्लिखित रहे कुछ नवीन पाठान्तर उपलब्ध प्राप्त किये जा सकते है। और २. कुछ संवादों की विसंगतता भी दूर हो सकती है।
उपसंहार - अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक में स्त्री, परिजनादि सेवकवर्ग, धीवर एवं विदूषक जैसे पात्रों के मुख में रखे गये संवादों की प्राकृतभाषा का स्वरूप जानने में उपर्युक्त प्राकृतविवृति एवं प्राकृतछायाओं से कुछ सहायता नहीं मिल सकती है। क्योंकि उसमें केवल प्राकृत-संवादों के संस्कृतछायानुवाद ही रखे गये हैं । यदि अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक के प्राकृत संवादों की सही स्थिति का स्वरूप जानना ही है तो प्रथम दृष्टि से ऐसा विचार आता है कि मूल नाटक की जो पाण्डुलिपिया है, उसमें संचरित हुए प्राकृत संवादों का एकत्र करके उसका तुलनात्मक अभ्यास करना चाहिये । क्योंकि स्व. डॉ. के. आर. चन्द्रजी (अहमदाबाद) जैसे प्रौढ़ विद्वानों ने विभिन्न काल खण्ड की प्राकृतभाषाओं का स्वरूप निश्चित करके दिखाया है । किन्तु यहाँ दूसरा विचार तुरन्त इस सभी पाण्डुलिपियों में प्राकृत भाषा के संवादों में बहुशः महाराष्ट्री प्राकृत ही दिख रही है, जो निश्चित रूप से परवर्ती काल का किया हआ परिवर्तन है। इसीलिए प्राचीन काल की प्राकृत-उक्तियाँ का स्वरूप जानने के लिये ये पाण्डुलिपियाँ ज्यादा उपयोगी नहीं हो सकती है।
आज उपलब्ध हो रही शाकुन्तल की पाण्डुलिपियों में ज्यादा तौर पर प्राकृत संवादों में शौरसेनी के स्थान पर महाराष्ट्री प्राकृत ने स्थान ले लिया है। जब की भरत मुनि ने तो संस्कृत नाटकों के लिये प्राकृत संवादों में शौरसेनी (और विशेष सन्दर्भो में मागधी) भाषा का विनियोग करने का सुझाव दिया था। एवमेव, इसी बात को भूले बिना कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने भी जब प्राकृतभाषाओं का व्याकरण (हेमचन्द्र, १९९४) लिखा तब शौरसेनी एवं मागधी भाषा का निरूपण करते समय जो उदाहरण पेश किये हैं वे प्राय: सभी संस्कृत नाटकों में से ही, (और वो भी अभिज्ञानशाकुन्तल में से विशेषतः) चुन कर रखे है । (अथवा कहा जा सकता है कि शाकुन्तल के प्राकृत संवादों को आदर्श के रूप में शौरसेनी एवं मागधी में पुनर्गठित करके उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किये हैं ।) डॉ. रिचार्ड पिशेल ने भी यही विचार प्रस्तुत किया है । अतः यदि किसी आधुनिक पाठसम्पादक को शाकुन्तल की प्राकृत-उक्तियों का पाठ पुनर्गठित करना है तो भरत मुनि एवं हेमचन्द्राचार्य द्वारा प्रशस्त किये मार्ग पर चलकर शौरसेनी एवं मागधी
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