________________
166
वसन्तकुमार म. भट्ट
SAMBODHI
सहापयति" । और (घ) में निर्दिष्ट "शाकुन्तलछाया" के अनुसार, "पश्य, नलिनीपत्रान्तरितमपि सहचरमपश्यन्त्यातुरा चक्रवाकी रोदति । दुष्करमहं करोमीति । (अनसूया) - सखि, मैवं मन्त्रय । एषापि प्रियेणविना गमयति रजनी विषाददीर्घकरम् । गुर्वपि विरहदुःखमाशाबन्धः सहायति" । यहाँ पर दोनों क्रियापदों के संस्कृतानुवाद में भारी अनिश्चितता प्रवर्तमान है वह दिख रहा है। जैसे कि - आरौति, आरटति, तथा रोदति । यहाँ प्राकृत पाठ के अनुसार आरडदि है, जो संभवतः देशी क्रियापद हो सकता है और उसका संस्कृतीकरण करने का प्रयास इन प्राकृतछायाओं में दिखता है। इसी तरह से सहयति, सहापयति
और सहायति जैसे तीन-तीन क्रियापदों की प्राप्ति होने पर लगता है कि यहाँ प्रेरक रूप रखा जाय या नहीं इसकी अनिर्णायक स्थिति दिख रही है । अन्त में चक्रवाकी का विशेषण आतुरा ज्यादा प्रचलित है, परन्तु एक नया पाठान्तर भी यहाँ मिल रहा है :- अचतुरा । जिसको यदि व्यंजना से उपमेयभूत शकुन्तला पर लगाया जाय तो प्रत्याख्यान के समय पर मुनिसुता शकुन्तला की विफलता का मर्म बदल जायेगा । राजा के द्वारा दिया गया अंगुलीयक भी सखियों के पास ही था, उसको उसने अपने पास भी नहीं रखा था तथा सखियों ने राजा की अंगुलीयक देते समय जो कहा था उसकी गंभीरता भी वह न समझ पाई।
(६) षष्ठांक के आरम्भ में जो धीवर-प्रसंग है उसके देवनागरी पाठ के अनुसार निम्नोक्त तीन उक्तिया ध्यानास्पद है:- (जानुक:-) आवृत्त, परितोषं कथय । तेनाङ्गलीयकेन भर्तुः संमतेन भवितव्यम् । (श्यालः) न तस्मिन् महार्ह रत्नं भर्तुर्बहुमतमिति तर्कयामि । तस्य दर्शनेन भर्तुरभिमतो जनः स्मारित:१२ ॥ यहाँ के अधोरेखांकित तीन शब्दों के स्थान में विविध प्राकृतछायायें कौन सा पाठ दे रही है वह तुलनीय है । (क) में निर्दिष्ट "प्राकृतविवृति" का पाठ तीन अंक से आगे नहीं है । अतः उसका प्रकृत में कोई उपयोग नहीं है । (ख) में निर्दिष्ट "शाकुन्तल-टिप्पणी" के अनुसार, (जानुक:) तेनाङ्गुलीयकेन भर्तुः शर्मादेन भवितव्यम् । (श्यालः) न तस्मिन् महाहँ रत्नं भर्तुर्बहुमतमिति तर्कयामि । तस्य दर्शनेन भर्तुरभिमतो जनः स्मारित: । (ग) में निर्दिष्ट "प्राकृतछाया" के अनुसार, (जानुकः) तेनाङ्गलीयकेन भर्तुः शर्मादेन भवितव्यम् । (श्यालः) न तस्मिन् महार्ह रत्नं भर्तुः परितोषमिति तर्कयामि । तस्य दर्शनेन भर्तुरभिमतो जनः स्मारितः । और (घ) में निर्दिष्ट "शाकुन्तलछाया" के अनुसार (जानुकः) तेनाङगुलीयकेन भर्तुः शर्मादेन भवितव्यम् । (श्यालः) न तस्मिन् महाहँ रत्नं भर्तुर्बहुतमिति तर्कयामि । तस्य दर्शनेन भर्तुरभिमतो जनः स्मारितः।
यह प्रचलित देवनागरी पाठ के अनुसार मूल प्राकृतभाषा का वाक्य देखें तो - "तेण अंगुलीअएण भट्टिणो शम्मदेन होदवं ।" ऐसा है । "शम्मदेन" का संस्कृतानुवाद "संमतेन" की अपेक्षा से "शर्मदेन" किया जाय तो वह ध्वनिविज्ञान की दृष्टि से तो नियमनासुर है ही, लेकिन पूर्वापर सन्दर्भ में भी वही समुचित प्रतीत होता है। देवनागरी वाचनावाले प्रकाशित अभिज्ञानशाकुन्तलों में "संमतेन" ऐसा जो पाठ चल रहा है वह किसी भी तरह से पूर्वापर सन्दर्भ में संगत नहीं बैठता है । इस सन्दर्भ में यह भी कहना आवश्यक है कि कथपति क्रियापद का मागधी प्राकृत में कधेहि - ऐसा रूप होता है । कालान्तर में थ का ध में जो परिवर्तन किया गया था उसमें महाराष्ट्री प्राकृत में रूपान्तर करने की प्रवृत्ति चल पडी होगी तब उस ध का ह में परिवर्तन किया गया होगा। जिसके फल स्वरूप कहेहि रूप बना होगा, और वह लोडर्थक
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org