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Vol. XXXVI, 2013
शाकुन्तल की प्राकृतविवृति एवं प्राकृतच्छायायें
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की प्राकृतछाया में, एवं बडौदा से प्राप्त की गई शाकुन्तलप्राकृतछाया में शकुन्तला के निर्गमन का दृश्य उक्त रंगसूचनानुसार केवल आङ्गिक अभिनय से सम्पन्न नहीं होता है । इस प्राकृतछाया के अनुसार तो शकुन्तला के मुख में इस तरह का वाचिक अंश भी रखा गया है :- "अभिनवदर्भाङ्करपरिक्षतं में चरणम्, कुरंटशाखापरिलग्रं च मे वल्कलम्, तत् प्रतिपालय माम्, यावदहं मोचयामि ।" देवनागरी वाचना के प्रचलित पाठ में और इस संस्कृतछाया में जो पाठ मिलता है वह ध्यानास्पद है। क्योंकि प्राकृतछाया में जिस तरह का वाक्य (वाचिकांश) है वैसा ही वाक्य बंगाली एवं मैथिली वाचनावाले अभिज्ञानशकुन्तल में भी प्राप्त हो रहा है। इससे ऐसा अनुमान किया जाता है कि कालिदासप्रणीत अभिज्ञानशाकुन्तल के मूल पाठ में यह वाचिकांश था, जो संस्कृतछाया तक संचरित होके आया है, किन्तु अनुगामी समय में, देवनागरी वाचना के पाठ में संक्षिप्तीकरण के दौरान उसीको केवल एक रंगसूचना देकर आङ्गिकाभिनय के रूप में परिवर्तित किया गया होगा।
(४) देवनागरी वाचना के द्वितीयांक में से विदूषक की एक उक्ति देखते है :- राजा कहता है कि - विश्रान्तेन भवता ममाप्यनायासे कर्मणि सहायेन भवितव्यम् । इसको सुनते ही विदूषक सहसा बोलता है कि - किं मोदखण्डिकायाम् । तेन ह्ययं सुगृहीतः क्षणः ॥ अब उपलब्ध की गई पाण्डुलिपिओं से (क) में निर्दिष्ट "प्राकतविवति" के अनुसार, विदषक बोलता है कि - तेनायं सुग्र(ग)[ही] तो जनः । किन्तु (ङ) में निर्दिष्ट बडौदा की १२५९४ क्रमांक की पाण्डुलिपि में तेन ह्ययं सुगृहीतः क्षणः - ऐसा पाठ दिया है। (ख) में निर्दिष्ट "शाकुन्तल-टिप्पणी" में विदूषक की उक्ति है: तेन हि अयं सुग्र(ग)हीतो जनः ।। (ग) में निर्दिष्ट "प्राकृतछाया" के अनुसार भी विदूषक की उक्ति है कि - तेन हि अयं सुग्र(ग)हीतो जनः ॥ और (घ)में निर्दिष्ट "शाकुन्तलछाया" के अनुसार, तेन हि अयं सूग्र(सुगृ)हीतो जनः । यहाँ पर एक नया पाठान्तर मिल रहा है, जो अद्यावधि शाकुन्तल के किसी भी पाठसम्पादन में उल्लिखीत नहीं है। प्रचलित पाठ "क्षण" के स्थान पर, "जनः" ऐसा एक शब्द बदल जाने से पूरा आङ्गिक अभिनय भी बदल जायेगा । बडौदा की ९२१९ क्रमांक की पाण्डुलिपि में "तेन सुगृहीत अयं ब्राह्मणः ।" ऐसा सर्वथा ‘भिन्न पाठभेद मिल रहा है। किन्तु ऐसे पाठभेद से अभिनय में कोई वैशिष्ट्य पैदा नहीं होता है ।
(५) चतुर्धाङ्क के शकुन्तला-विदाई प्रसंग में जो प्राकृत गाथायें आती है उसके संस्कृतानुवाद की तुलना भी द्रष्टव्य है । देवनागरी वाचना के प्रचलित पाठ इस तरह का है :- (शकुन्तला) हला, पश्य, नलिनीपत्रान्तरमपि सहचरमपश्यन्त्यातुरा चक्रवाकी आरौति । दुष्करमहं करोमीति । (अनसूया) – सखि, मैवं मन्त्रय । एषापि प्रियेण को देखे तो सभी पाण्डुलिपियों में कुछ पाठभेद मिलते है। जैसे कि – (क) में निर्दिष्ट "प्राकृतविवृति" अपूर्ण है, उसमें केवल तीन अङ्क होने से इस उदाहरण के लिये वह उपयोगी नहीं है । (ख) में निर्दिष्ट "शाकुन्तल-टिप्पणी" में पश्य, नलिनीपत्रान्तरितमपि सहचरमपश्यन्ती अचतुरा चक्रवाकी आरौति । दुष्करमहं करोति । (अनसूया) – सखि, मैवं मन्त्रय । एषापि प्रियेण विना गमयति रजनीं विषाददीर्घतराम् । गुरुमपि विरहदुःखमाशाबन्धः सहयति । (ग) में निर्दिष्ट "प्राकृतछाया" के अनुसार,
पश्य नलिनीपत्रान्तरितमपि सहचरपश्यन्ती आतुरा चक्रवाकी आरटति । दुष्करमहं करोमीति । (अनसूया) .. - सखि, मैवं मन्त्रय । एषापि प्रियेण विना गमयति रजनीं विषाददीर्घतराम् । गुरुतरामपि विरहदुःखमाशाबन्धः
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