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________________ 164 वसन्तकुमार म. भट्ट SAMBODHI ही है ऐसा अन्तिम पुष्पिका में लिखा है। इसका पाठ उपर्युक्त प्राकृतविवृति से साथ बहुशः साम्य रखता है। प्राकृतछाया (अज्ञातकर्तृक), क्रमांक-२००/१८७९-८०, पुराना क्र. ७९/१९०७-१५ १ प्रथमांक के अन्त में उपर्युक्त शकुन्तला की वाचिक-उक्ति नहीं है । २ अनियतवेलं शूल्ल(ल्य)मांसभूयी(यि)ष्टः आहार आहीयते । ३ कादम्बरीसखित्वम् अस्माकं प्रथमशोभितं इष्यते । ४ सर्वं कथयित्वा अवसाने पुनः परिहासविकल्प एष, न भूतार्थ इत्याख्यातं, मयापि मन्दबुद्धिना तथैव गृहीतम् । प्राकृतविवृति एवं प्राकृतछायाओं की महत्ता/उपयोगिता एवं तत्सम्बद्ध अन्य बिन्दुओं पर सोचने के लिये कतिपय दूसरें वाक्यों का भी तुलनात्मक अभ्यास करना आवश्यक है । जैसे कि - (१) (क) में निर्दिष्ट "प्राकृतविवृति" के अनुसार, नाटक की प्रस्तावना में नटी की एक उक्ति है :- कतमं पुनः ऋतुमधिकृत्य गाईष्ये । (ख) में निर्देष्ट "शाकुन्तल-टिप्पणी" में यह उक्ति प्राप्त नहीं होती है। (ग) में निर्दिष्ट "प्राकृतछाया" के अनुसार, नटी के उक्ति का स्वरूप इस तरह है:- कतमं पुनः समयं समाश्रित्य गास्ये । और (घ) में निर्दिष्ट "शाकुन्तलछाया" के अनुसार, नटी-वाक्य ऐसा है:- आर्य, कतरं ऋतुम् अधिकृत्य गास्यामि । यहाँ “गाईष्ये", "गास्ये", एवं "गास्यामि" शब्दों से जो संस्कृतानुवाद दिया गया है वह केवल ध्वनिसाम्य के आधार पर किया गया "छायानुवाद" ही है, शुद्ध अनुवाद नहीं है। एवमेव, यहाँ जो क्रियापद का स्वरूप है वह सब में भिन्न-भिन्न है, अर्थात् ये सभी प्राकृत-पाण्डुलिपियाँ का आदर्शभूत् शाकुन्तल का पाठ अलग-अलग होगा । दूसरे शब्दों में कहे तो, आज प्राप्त हो रही इन प्राकृतविवृतियाँ एवं प्राकृतछायाओं से सम्बद्ध हो ऐसी पाण्डुलिपियाँ गवेषणीय है। (२) यहाँ देवनागरी वाचना का जो प्रकाशित/प्रचलित पाठ है उसमें नटी ऐसा कोई वाक्य बोलती ही नहीं है । देवनागरी वाचना के प्रकाशित पाठ में, नटी कहती है कि - आर्य, एवमेव तत् । अनन्तरकरणीयमार्य आज्ञापयतु ॥ उसके उत्तर में सूत्रधार बोलता है कि किमन्यदस्याः परिषदः श्रुतिप्रसादनतः? तदिममेव..... ग्रीष्मसमयमधिकृत्य गीयताम् । इस तुलना का सार यह निकला कि प्राकृतविवृति एवं छायाओं में जो नटी की उक्ति मिलती है, वह प्राचीन (बृहत्) पाठ का (अवशिष्ट रहा) अंश है । अर्थात् पश्चाद्वर्ती समय में देवनागरी वाचना में संक्षेप करने के आशय से यह उक्ति हटाई गई (३) देवनागरी वाचना का जो प्रकाशित/प्रचलित पाठ है उसमें, प्रथमांक के अन्त में धर्मारण्य में हस्ती-प्रविष्ट होने की सूचना मिलने के बाद अनसूया-प्रियंवदा के साथ शकुन्तला से बिदा ले रही है तब एक रंगसूचना दी गई है कि - "शकुन्तला राजानमवलोकयन्ती सव्याजं विलम्ब्य.सह सखीभ्यां निष्क्रान्ता" । परन्तु एकत्र की गई प्राकृतछायाओं का अभ्यास करने से मालुम होता है कि विद्वन्मुकुटमाणिक्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520786
Book TitleSambodhi 2013 Vol 36
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2013
Total Pages328
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size7 MB
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