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________________ 162 वसन्तकुमार म. भट्ट ४. शाकुन्चल नाटक की प्राकृत - विवृति / छायाओं का तुलनात्मक अभ्यास जिन प्राकृतविवृति एवं प्राकृतछायाओं की पाण्डुलिपियों का वर्णन उपर दिया गया है वे परस्पर में कैसा साम्य-वैषम्य रखती है उसका अभ्यास कुछ उदाहरणों के द्वारा करना चाहिये। लेकिन इसके पह इन चारों प्राकृतविवृति तथा प्राकृतछायाओं का किस वाचना के साथ सम्बन्ध है उसका परीक्षण भी करना आवश्यक है नाटक के आरम्भ में एक संकेत मिलता है कि दुष्यन्त को चक्रवर्ती पुत्र की प्राप्ति होना यह नाटक का अन्तिम लक्ष्य है। यह बात नाटक में गर्भित सूत्र के रूप में साद्यन्त प्रवर्तमान है, जिसकी ओर प्रेक्षकों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए द्वितीय एवं षष्ठांक में प्रकट संकेत भी रखे गये है। द्वितीय अङ्क के अन्त में करभक आता है और कहता है कि - जयतु भर्ता । देव्याज्ञापयति - आगामिनि चतुर्थदिवसे. प्रवृत्तपारणो मे उपवासो भविष्यति । तत्र दीर्घायुषावश्यं संभावनीयेति । अब अभिज्ञानशाकुन्तल की बंगाली एवं मैथिली वाचनाओं में अनुक्रम से १. पुत्रपिण्डपालनो नाम उपवासो, तथा २. पुत्रपिंण्डपर्युपासनो नाम उपवासो – ऐसे पाठभेद मिलते है । काश्मीरी वाचना में पुत्रपिण्डाराधनो नाम उपवासो - यह पाठ मिल रहा है । दाक्षिणात्य वाचना में निर्वृत्तपारणो मे उपवासो ऐसा पाठ चल रहा है । किन्तु प्राकृतविवृति एवं प्राकृतछायाओं में सर्वत्र “प्राकृत्तपारणो मे उपवासो" ऐसा ही पाठ दिख रहा है, जो केवल देवनागरी वाचना का पाठ है। अत: इन सभी प्राकृतविवृति एवं प्राकृतछायायें देवनागरीवाचना के अभिज्ञानशाकुन्तल से जुडी हुई है ऐसा प्राथमिक परीक्षण से ज्ञात होता है । और इसी लिये देवनागरी वाचनावाला अभिज्ञानशाकुन्तल जो निर्णय सागर प्रेस, मुंबई से प्रकाशित हुआ था एवं जिसका पुनर्मुद्रण राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, नयी दिल्ली (२००६) ने राघव भट्ट की "अर्थद्योतनिका" टीका के साथ किया है, उसके पाठ के साथ इन प्राकृत पाण्डुलिपियाँ में मिलनेवाले पाठ की तुलना कुछ उदाहरणों के माध्यम से की जायेगी : राघव भट्ट ने जिस पाठ पर टीका लिखा है : - Jain Education International SAMBODHI १ रंगसूचना के रूप में २ अनियतवेलं शूल्यमांसभूयिष्ट आहारो भुज्यते । ३ कादम्बरीसखित्वमस्माकं प्रथमशोऽभिमतमिष्यते । ४ सर्वं कथयित्वा अवसाने पुनस्त्वया परिहासविजल्प एष, न भूतार्थ इत्याख्यातम् । मयापि मृत्पिण्डबुद्धिना तथैव गृहीतम् ॥ - (शकुन्तला राजानमलोकयन्ती सव्याजं विलम्ब्य सह सखीभ्यां निष्क्रान्ता । (१) विद्वन्मुकुटमाणिक्य की प्राकृतछाया में दिया हुआ संस्कृतछायानुवाद राघवभट्ट द्वारा स्वीकृत प्राकृतउक्तियों के पाठ के साथ पूर्ण साम्य रखता है । इस प्राकृतछाया की कुल मिला के तीन प्रतिलिपियों का परीक्षण किया गया है। ये तीन प्रतिलिपियाँ १. भाण्डारकर ओरि रिसर्च इन्स्टी. पूणे, १. ओरिएन्टल इन्स्टीट्युट, वडोदरा तथा ३. महाराजा मानसिंह पुस्तकप्रकाश शोध केन्द्र, जोधपुर से प्राप्त की गई है । प्राकृतछाया, (भा. ओ. रि. इन्स्टी. ४७२ / १८८७-९१) For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520786
Book TitleSambodhi 2013 Vol 36
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2013
Total Pages328
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size7 MB
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