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________________ Vol. XXXVI, 2013 शाकुन्तल की प्राकृतविवृति एवं प्राकृतच्छायायें श्रीगणेशाय नमः ॥ श्रीकालिदासकविना प्राकृतम् अप्राकृतं कृतम् । तस्याहं अमरवाणीं लिखामि, वाणीं प्रणम्याहं (आशु ? ) ॥१॥ उसी तरह से प्रथमांक के अन्त पर लिखा है कि इति श्रीमच्चतरुदधि-तटी-टीकमानबिप्राटयशो - राजहंस-हंस - स [म] प्रभ-प्रताप-तापिताऽराति - गेहनी - नयने नीर - पूर - पूरित - समस्त - जगत्त्रयश्रीमद्-दुष्यन्त-वर्णन-निपुण - श्रीकालिदास - रचित - प्राकृतस्याऽमरबाणीलेखे प्रथमोऽङ्कः ॥१॥ इसमें कहीं पर भी इस प्राकृतछाया के कर्ता का नाम नहीं दिखाई देता । केवल संस्कृतानुवाद को वह " अमरवाणी" कहता है, यह ध्यानास्पद वैशिष्ट्य है । इस सन्दर्भ में, Catalogue of the Sanskrit Manuscripts in the British Museum, Ed. Cecil Bendall, 1902, (p. 109-110) में एक " वेणीसंहारस्य छाया” नामक पाण्डुलिपि का जो निर्देश है, उसके आरम्भ में लिखा है कि - यत् प्राकृतमतिगहनं वेणीसंहारनाटकस्थितितत् । विव्रियतेऽमरवाण्या वाण्याः पदपंकजं नत्वा ॥ तथा उसके अन्त में लिखा है कि विद्वन्मुकुट - माणिक्य- भट्टरामेशसुनना । विवृतिं प्राकृतं वेणीसंहारस्थं यथामति ॥ इति वेणीसंहार - प्राकृतस्य पर्यायै विर( चित ) समाप्तम् ॥ Jain Education International 161 यहाँ पर भी संस्कृतछायानुवाद को जो "अमरवाणी" ऐसा नाम दिया गया है उससे ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि अभिज्ञानशाकुन्तल की जो उपर्युक्त प्राकृतछाया है वह भी " रामेशपुत्र विद्वन्मुकुटमाणिक्य" ही लिखी होगी । यह पाण्डुलिपि षष्ठांक तक मिलती है। देवनागरी वाचनावाले अभिज्ञानशाकुन्तल की उपलब्ध की गई पाँच प्राकृतविवृतियाँ / प्राकृतछायाओं में से यही प्राचीनतर समय की प्राकृतछाया है ऐसा स्पष्ट संकेत मिल रहा है । इसी की एक प्रति (क्रमांक - ) जोधपुर के पूर्वोक्त संग्रह से प्राप्त की गई ' है, जिसमें कृति का पाठ सम्पूर्ण है । (घ) भाण्डारकर ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूणे के संग्रह में जो २०० / १८७९-८० क्रमांक ९ की “शाकुन्तलनाटक-प्राकृतछाया" शीर्षकवाली पाण्डुलिपि है, वह अज्ञात -कर्तृक रचना है । तथा वह सप्तमांक तक पूर्ण है । इसमें नितान्त तया केवल प्राकृत उक्तियों के संस्कृतानुवाद रखे गये है । स्थूलाक्षरी प्रकार की यह पाण्डुलिपि है । कुल मिला पत्र ४३ है, बीच-बीच में पाँच (१०, ११, ३१, ३३ एवं ३४) पृष्ठ गायब हैं । इस पाण्डुलिपि का भी प्रत्यक्ष परीक्षण किया गया है । (ङ) इसके साथ ओरिएन्टल इन्स्टीट्यूट, एम. एस. युनिवर्सिटी ऑफ बडौदा, वडोदरा के ग्रन्थभण्डार से ९२१९ क्रमांक की पाण्डुलिपि स्केन कॉपी के रूप में प्राप्त हुई है। इसमें कही पर भी रचयिता का नामनिर्देश नहीं है । तथापि यह उल्लेखनीय है कि उपर (ग) में निर्दिष्ट पाण्डुलिपि के साथ उसका पूर्ण साम्य है । अत: यह भी विद्वन्मुकुटमाणिक्य की रचना होगी ऐसा अनुमान किया जा सकता है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520786
Book TitleSambodhi 2013 Vol 36
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2013
Total Pages328
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size7 MB
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