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150 सागरमल जैन
SAMBODHI (सियंबर) शब्द के प्रयोग को संप्रदाय सूचन न मानकर उस युग के सवस्त्र मुनि का सूचक माना है। हो सकता है कि परवर्ती श्वेताम्बर आचार्यों या प्रतिलिपि कर्ताओं ने यह शब्द बदला हो. यद्यपि ऐसी संभावना कम है। क्योंकि सीता साध्वी के लिये भी सियंबार शब्द का प्रयोग उन्होंने स्वयं किया होगा । मुझे ऐसा लगता है विमलसूरि के युग तक जैन मुनियों में वस्त्र रखने की प्रवृत्ति विकसित हो चुकी थी। मथुरा के ईसा की प्रथम-द्वितीय शती के अंकन भी इसकी पुष्टि करते हैं । जिस प्रकार सवस्त्र साध्वी सीता को विमलसूरि ने सियंबरा कहा उसी सवस्त्र मुनि को भी सियंबर कहा होगा । उनका यह प्रयोग निर्ग्रन्थ मुनियों द्वारा वस्त्र रखने की प्रवृत्ति का सूचक है, न कि श्वेताम्बर दिगम्बर संघभेद का । विमलसूरि निश्चित ही श्वेताम्बर और यापनीय - दोनों के पूर्वज हैं । श्वेताम्बर उन्हें अपने संप्रदाय का केवल इसीलिये मानते हैं कि वे उनकी पूर्व परम्परा से जुड़े हुए हैं ।
श्रीमती कुसुम पटोरिया ने महावीर जयन्ती स्मारिका जयपुर वर्ष १९७७ ई. पृष्ठ २५७ पर इस तभ्य को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि विमलसूरि और पउमचरियं यापनीय नहीं है । वे लिखती हैं कि 'निश्चित विमलसूरि एक श्वेताम्बराचार्य है। उनका नाइलवंश, स्वयंभू द्वारा उनका स्मरण न किया जाना तथा उनके (ग्रन्थ में) श्वेतांबर साधु का आदरपूर्वक उल्लेख-उनके यापनीय न होने के प्रत्यक्ष प्रमाण है।
विमलसूरि और उनके पउमचरियं को यापनीय मानने में सबसे बड़ी बाधा यह भी है कि उनकी कृति महाराष्ट्री प्राकृत को अपने ग्रन्थ की भाषा नहीं बनाया है । यापनीयों ने सदैव ही अर्धमागधी से प्रभावित शौरसेनी प्राकृत को ही अपनी भाषा माना है ।
अत: आदरणीय पं. नाथुरामजी प्रेमी ने उसके यापनीय होने के संबंध में जो संभावना प्रकट की है, वह समुचित प्रतीत नहीं होती है। यह ठीक है कि उनकी मान्यताओं की श्वेताम्बरों एवं यापनीयों दोनों . से समानता है, किन्तु इसका कारण उनका इन दोनों परम्पराओं का पूर्वज होना है - श्वेताम्बर या यापनीय होना नहीं । काल की दृष्टि से भी वे इन दोनों के पूर्वज ही सिद्ध होते हैं । पुनः यापनीय आचार्य रविष्ण
और अपभ्रंश के महाकवि स्वयम्भू द्वारा उनकी कृति का पूर्णतः अनुरण करने पर भी उनके नाम का उल्लेख नहीं करना यही सूचित करता है कि वे उन्हें अपनी परम्परा का नहीं मानते थे । अत: सिद्ध यही होता है कि विमलसूरि श्वेताम्बर और यापनीय दोनों परम्परा के पूर्वज हैं । श्वेताम्बरों ने सदैव अपने पूर्वज आचार्यों को अपनी परम्परा माना है। विमलसरि के दिगम्बर होने का तो प्रश्न नहीं उठता, यापनीयों और स्वयम्भू कहीं न कहीं उनका नाम निर्देश अवश्य करते । पुनः यापनीयों की शौरसेनी प्राकृत को न अपना कर अपना काव्य महाराष्ट्री प्राकृत में लिखना यही सिद्ध करता है कि यापनीय नहीं है।
अतः विमलसूरि की परम्परा के सम्बन्ध में दो ही विकल्प है। यदि हम उनके ग्रन्थ का रचना काल वीर निर्वाण सम्वत ५३० मानते हैं तो हमें उन्हें श्वेताम्बर और यापनीयों का पर्वज मानना है क्योंकि श्वेताम्बर दिगम्बरों की उत्पत्ति वीर निर्वाण के ६०६ वर्ष वाद और दिगम्बर श्वेताम्बरी की उत्पत्ति वीर निर्वाण के ६०९ वर्ष बाद ही मानते है। यदि हम इस काल को वीर निर्वाण सम्वत मानते श्वेताम्बरों और यापनीयों के पूर्वज सिद्ध होगे और यदि इसे विक्रम संवत् मानते है तो जैसा कि कुछ विद्वानों ने माना है, तो उन्हें श्वेताम्बर आचार्य मानना होगा ।
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