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________________ Vol. XXXVI, 2013 पउमचरियं : एक सर्वेक्षण ५३० मान लिया गया है, किन्तु यह धारणा भ्रान्तिपूर्ण है । इस संबंध में विशेष उहापोह करके कल्याणविजयजी ने आर्य वज्रसेन की दीक्षा वीर नि.सं. ४८६ में निश्चित की है । यदि इसे हम सही मान ले तो वीर नि.सं. में नाईल कुल का अस्तित्व मानने में कोई बाधा नहीं आती है । पुनः यदि कोई आचार्य दीर्घजीवी हो तो अपनी शिष्य परंपरा मे सामान्यतया वह चार-पाँच पीढ़ियाँ तो देख ही लेता है । वज्रसेन के शिष्य आर्य नाग, जिनके नाम पर नागेन्द्र कुल ही स्थापना हुई, अपने दादा गुरू आर्य व्रज के जीवनकाल में जीवित हो सकते हैं। पुनः आर्य वज्र का स्वर्गवास वी. नि. सं. ५७४ में हुआ ऐसा अन्य स्रोतों से प्रमाणित नहीं होता है | मेरी दृष्टि में तो यह भ्रान्त अवधारणा है । वह भ्रान्ति इसलिये प्रचलित हो गई कि नन्दीसूत्र स्थविरावली में आर्य वज्र के पश्चात् सीधे आर्य रक्षित का उल्लेख हुआ । इसी आधार पर उन्हें आर्य वज्र का सीधा शिष्य मानकर वज्रसेन को उनका गुरू भ्राता मान लिया गया और आर्यरक्षित के काल के आधार पर उनकें काल का निर्धारण कर लिया गया । किन्तु नन्दीसूत्र में आचार्यो के क्रम में बीच-बीच में अन्तराल रहे हैं । अत: आचार्य विमलसूरि का काल वीर निर्वाण सं.५३० अर्थात् विक्रम की दूसरी शताब्दी का पूर्वाध मानने में कोई बाधा नहीं आती है। यदि हम पउमचरियं के रचनाकाल वीर नि.सं. ५३० को स्वीकार करते हैं, तो यह स्पष्ट है कि उस काल तक उत्तरभारत के निर्ग्रन्थ संघ में विभिन्न कुल शाखाओं की उपस्थिति और उनमें कुछ मान्यता भेद या वाचनाभेद तो था फिर भी स्पष्ट संघभेद नहीं हुआ था । दोनों परम्पराएँ इस संघभेद को वीर निर्वाण सं. ६०६ या ६०९ में मानती है। अतः स्पष्ट है कि अपने काल की दृष्टि से भी विमलसूरि संघभेद के पूर्व के आचार्य हैं और इसलिए उन्हें किसी संप्रदाय विशेष से जोड़ना संभव नहीं है । हम सिर्फ यह कह सकते हैं वे उत्तर भारत के उस श्रमण संघ में हुए हैं, जिसमें से श्वेताम्बर और यापनीय दोनों धाराएँ निकली हैं । अतः वे श्वेताम्बर और यापनीय दोनों के पूर्वज है और दोनों ने उनका अनुसरण किया है । यद्यपि दक्षिण भारत की निर्ग्रन्थ परम्परा के प्रभाव से यापनीयों ने उनकी कुछ मान्यताओं को अपने अनुसार संशोधित कर लिया था, किन्तु स्त्रीमुक्ति आदि तो उन्हें भी मान्य रही है । पउमचरियं में स्त्रीमुक्ति आदि की जो अवधारणा है वह भी यही सिद्ध करती है कि वे इन दोनों परम्पराओं के पूर्वज हैं, क्योंकि दोनों ही परम्परायें स्त्रीमुक्ति को स्वीकार करती हैं । यदि कल्पसूत्र स्थविरावली के सभी गण, कुल, शाखायें श्वेताम्बर द्वारा मान्य है, तो विमलसूरि का पूर्वज मानने में कोई बाधा नहीं है । पुन: यह भी सत्य है कि सभी श्वेताम्बर आचार्य उन्हें अपनी परम्परा का मानते रहे हैं । जबकि यापनीय रविषेण और स्वयंभू ने उनके ग्रन्थों का अनुसरण करते हुए भी उनके नाम का स्मरण तक नहीं किया है, इससे यही सिद्ध होता है कि वे उन्हें अपने से भिन्न परम्परा का मानते थे । किन्तु यह स्मरण रखना होगा कि वे उसी युग में हुए हैं जब श्वेताम्बर, यापनीय और दिगम्बर का स्पष्ट भेद सामने नहीं आया था । यद्यपि कुछ विद्वान उनके ग्रन्थ में मुनि के लिए 'सियंबर' शब्द के एकाधिक प्रयोग देखकर उनकी श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध करना चाहेंगे, किन्तु इस संबंध में कुछ सावधानियों की अपेक्षा है | विमलसूरि के इन दो-चार प्रयोगों को छोड़कर हमें प्राचीन स्तर के साहित्य में कहीं भी श्वेताम्बर या दिगम्बर शब्दों का प्रयोग नहीं मिलता है । स्वयं विमलसूरि द्वारा पउमचरियं में एक भी 'स्थल' पर दिगम्बर शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। विद्वानों ने भी विमलसूरि के पउमचरियं में उपलब्ध श्वेताम्बर Jain Education International 149 For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.520786
Book TitleSambodhi 2013 Vol 36
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2013
Total Pages328
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size7 MB
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