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Vol. XXXVI, 2013 प्राकृत आगम साहित्य : एक विमर्श
121 मौलिक कही जा सकती है फिर भी आगमों को उनके अनेक ग्रन्थों के मूलस्रोत के रुप में स्वीकार किया जा सकता है। मात्र मूलाचार में ही तीन सौ से अधिक गाथाएँ उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आवश्यकनियुक्ति, जीवसमास, आतुरप्रत्याख्यान, चन्द्रवेध्यक(चन्दावेज्झय) आदि में उपलब्ध होती हैं । इसी प्रकार भगवतीआराधना में भी अनेक गाथाएँ अर्धमागधी आगम और विशेष रुप से प्रकीर्णकों (पइन्ना) से मिलती है । षट्खण्डागम और प्रज्ञापना में भी जो समानताएँ परिलक्षित होती हैं, उनकी विस्तृत चर्चा पण्डित दलसुखभाई मालवणिया ने (प्रो. ए. एन. उपाध्ये व्याख्यानमाला में) की है । नियमसार की कुछ गाथाएँ अनुयोगद्वार एवं इतर आगमों में भी पाई जाती हैं, जबकि समयासार आदि कुछ ऐसे शौरसेनी आगम तुल्य ग्रन्थ भी हैं, जिनकी मौलिक रचना का श्रेय उनके कर्ताओं को ही है। तिलोयपन्नति का प्राथमिक रुप विशेष रुप से आवश्यकनियुक्ति तथा कुछ प्रकीर्णकों के आधार पर तैयार हुआ था, यद्यपि बाद में उसमें पर्याप्त रूप से परिवर्तन और परिवर्धन किया गया है । इस प्रकार शौरसेनी प्राचीन आगम-साहित्य ही रहा है तथापि उनमें जो सैद्धान्तिक गहराईयाँ और विकास परिलक्षित होते हैं, वे उनके रचनाकारों की मौलिक देन है।
आगमों का कर्तृत्व प्रायः अज्ञात -
आगमों में प्रज्ञापना, दशवैकालिक और छेदसूत्रों के कर्तृत्व को छोड़कर शेष के रचनाकारों के सम्बन्ध में हमें कोई स्पष्ट जानकारी प्राप्त नहीं होती है । यद्यपि दशवैकालिक आर्य शय्यम्भवसूरि की, तीन छेदसूत्र आर्यभद्रबाहु की और प्रज्ञापना श्यामाचार्य की कृति माने जाते हैं, महानिशीथ का उसकी दीमकों से भक्षित प्रति के आधार पर आचार्य हरिभद्र ने समुद्धार किया था, यह स्वयं उसी में उल्लिखित है, तथापि अन्य आगमों के कर्ताओं के बार में हम अन्धकार में ही हैं । सम्भवतः उसका मूल कारण यह रहा होगा कि सामान्यजन में इस बात का पर्ण विश्वास बना रहे कि अर्धमागधी आगम गणधरों अथवा पर्वधरों की कृति है, इसलिये कर्ताओं ने अपने नाम का उल्लेख नहीं किया। यह वैसी ही स्थिति है जैसी हिन्दू-पुराणों के कर्ता के रूप में केवल वेद व्यास को जाना जाता है । यद्यपि वे अनेक आचार्यों की और पर्याप्त परवर्तीकाल की रचनाएँ हैं।
इसके विपरीत शौरसेनी आगम तुल्य ग्रन्थों की मुख्य विशेषता यह है कि उनमें सभी ग्रन्थों का कर्तृत्व सुनिश्चित है । यद्यपि उनमें भी कुछ परिवर्तन और प्रक्षेप परवर्ती आचार्यों ने किये है। फिर भी इस सम्बन्ध में उनकी स्थिति अर्धमागधी आगम की अपेक्षा काफी स्पष्ट है । अर्धमागधी आगमों में तो यहा तक भी हुआ है कि कुछ विलुप्त कृतियों के स्थान पर पर्याप्त परवर्ती काल में दूसरी कृति ही रख दी गई । इस सम्बन्ध में प्रश्नव्याकरण की सम्पूर्ण विषय-वस्तु के परिवर्तन की चर्चा पूर्व में ही की जा चुकी है। अभी-अभी अंगचूलिया और बंगचूलिया नामक दो विलुप्त आगमों का पता चला, ये भोगीलाल लेहरचन्द भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर में उपलब्ध है, जब इनका अध्ययन किया तो पता चला कि वे लोकाशाह के पश्चात् अर्थात् सोलहवीं या सत्रहवीं शताब्दी में किसी अज्ञात आचार्य ने बनाकर रख दिये हैं । यद्यपि इससे यह निष्कर्ष भी नहीं निकाल लेना चाहिए कि या स्थिति सभी अर्धमागधी आगमों की
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