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सागरमल जैन
SAMBODHI
है। सत्य तो यह है कि उनके प्रक्षेपों और परिवर्तनों को आसानी से पहचाना जा सकता है, जबकि शौरसेनी आगमों में हुए प्रक्षेपों को जानना जटिल हैं ।
___ आगमों की विषय-वस्तु के सम्बन्ध में जिस अतिशयता की चर्चा परवर्ती आचार्यों ने की है, वह उनके कथन की विश्वनीयता का प्रश्न चिह्न उपस्थित करती है। हमारी श्रद्धा और विश्वास चाहे कुछ भी हो, किन्तु तर्कबुद्धि और गवेषणात्मक दृष्टि से तो ऐसा प्रतीत होता है कि आगम साहित्य की विषयवस्तु को बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया । यह कहना कि आचारांग के आगे प्रत्येक अंग ग्रन्थ की श्लोक संख्या एक दूसरे से क्रमशः द्विगुणित रही थी अथवा १४ वे पूर्व की विषय-वस्तु इतनी थी कि उसे चौदह हाथियों के बराबर स्याही से लिखा जा सकता था, आस्था की वस्तु हो सकती है, किन्तु बुद्धिगम्य नहीं हैं।
अन्त में विद्वानों से मेरी यह अपेक्षा है कि वे आगमों और विशेष रूप से अर्धमागधी आगमों का अध्ययन श्वेताम्बर, मूर्तिपूजक, स्थानकवासी या तेरापंथी दृष्टि से न करें अपितु इन साम्प्रदायिक अभिनिवेशों से उपर उठकर करें, तभी हम उनके माध्यम से जैनधर्म के प्राचीन स्वरूप का यथार्थ दर्शन कर सकेगें और प्रामाणिक रुप से यह भी समझ सकेगें कि कालक्रम में उनमें कैसे और क्या परिवर्तन हुए हैं। आज आवश्यकता है पं. बेचरदासजी जैसी निष्पक्ष एवं तटस्थ बुद्धि से उनके अध्ययन की । अन्यथा दिगम्बर को उसमें वस्त्रसम्बन्धी उल्लेख प्रक्षेप लगेंगे, तो श्वेताम्बर सारे वस्रपात्र के उल्लेखों को महावीरकालीन मानने लगेगा और दोनों ही यह नहीं समझ सकेंगे कि वस्र-पात्र का क्रमिक विकास किन परिस्थितियों में और कैसे हुआ है ? इस सम्बन्ध में नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका का अध्ययन आवश्यक है क्योंकि ये इनके अध्ययन की कुंजियाँ हैं । शौरसेनी और अर्धमागधी आगमों का तुलनात्मक अध्ययन भी उनमें निहित सत्य को यर्थाथ रूप से आलोकित कर सकेगा । आशा है युवा-विद्वान् मेरी इस प्रार्थना पर ध्यान देगे।
जैन आगम-साहित्य का परिचय देने के उद्देश्य से सम्प्रतिकाल में अनेक प्रयत्न हुए हैं। सर्वप्रथम पाश्चात्य विद्वानों में हर्मन जैकोबी, शुब्रिग, विण्टरनित्ज आदि ने अपनी भूमिकाओं एवं स्वतन्त्र निबन्धों में इस पर प्रकाश डाला। इस दिशा में अंग्रेजी में सर्वप्रथम हीरालाल रसिकलाल कापड़िया ने “A History of the Cononical Literature of the Jainas" नामक पुस्तक लिखी। यह ग्रन्थ अत्यन्त शोधपरक दृष्टि से लिखा गया और आज भी एक प्रामाणिक ग्रन्थ के रूप में मान्य किया जाता है। इसके पश्चात् प्रो. जगदीशचन्द्र जैन का ग्रन्थ "प्राकृत साहित्य का इतिहास" भी इस क्षेत्र में दूसरा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान द्वारा जैन साहित्य बृहद् इतिहास योजना के अन्तर्गत प्रकाशित प्रथम
वण्डों में प्राकत आगम-साहित्य का विस्तत विवरण उपलब्ध होता है। इसी दिशा में आचार्य देवन्द्रमुनिशास्त्री की पुस्तक "जैनागम : मनन और मीमांसा" भी एक महत्त्वपूर्ण कृति हैं। मुनि नगराजजी की पुस्तक "जैनागम और पाली-त्रिपिटक" भी तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं । पं. कैलासचन्द्र जी द्वारा लिखित "जैन साहित्य के इतिहास की पूर्व पीठिका" में अर्धमागधी आगम साहित्य का और उसके प्रथम भाग में शौरसेनी आगम साहित्य का उल्लेख हुआ है किन्तु उसमें
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