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________________ 120 सागरमल जैन सम्पादन काल में भी उनमें अहिंसा की सूक्ष्मता के साथ पालन करने के निर्देश हैं तो दूसरी और अपवाद की अपेक्षा से ऐसे अनेक विवरण भी हैं जो इस सूक्ष्म अहिंसक जीवनशैली के अनुकूल नहीं है । इसी प्रकार एक और उनमें मुनि की अचेलता का प्रतिपादन - समर्थन किया गया है, तो दूसरी और वस्त्र- पात्र के साथ-साथ मुनि के उपकरणों की लम्बी सूची भी मिल जाती है। एक और केशलोच का विधान है। तो दूसरी और क्षुर - मुण्डन की अनुज्ञा भी है। उत्तराध्ययन में वेदनीय के भेदों में क्रोध वेदनीय आदि का उल्लेख है, जो कि कर्मसिद्धान्त के ग्रन्थों में यहाँ तक कि स्वयं उत्तराध्ययन के कर्मप्रकृति नामक अध्ययन में भी अनुपलब्ध है । उक्त साक्ष्यों से ऐसा प्रतीत होता है कि अर्धमागधी आगम साहित्य जैन संघ की निष्पक्ष इतिहास प्रस्तुत करता है । तथ्यों का यथार्थ रूप में प्रस्तुतीकरण उसकी अपनी विशेषता है । वस्तुतः तथ्यात्मक विविधताओं एवं अन्तर्विरोधों के कारण अर्धमागधी आगम साहित्य के ग्रन्थों के कालक्रम का निर्धारण भी सहज हो जाता है । SAMBODHI (ब) आगमों में जैनसंघ के इतिहास का प्रामाणिक रूप यदि हम आगमों का समीक्षात्मक दृष्टि से अध्ययन करें, तो हमें यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन परम्परा के आचार एवं विचार में देश - कालगत परिस्थितियों के कारण कालक्रम में क्या-क्या परिवर्तन हुए इसको जानने का आधार अर्धमागधी आगम ही है, क्योंकि इन परिवर्तनों को समझने के लिये उनमें उन तथ्यों के विकास क्रम को खोजा जा सकता है। उदाहरण के रूप में जैनधर्म में साम्प्रदायिक अभिनिवेश कैसे दृढ़-मूल होता गया इसकी जानकारी ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन सूत्रकृतांग और भगवती के पन्द्रहवें शतक के समीक्षात्मक अध्ययन से मिल जाती है। ऋषिभाषित में नारद, मंखलिगोशाल, असितदेवल, नारायण, यात्रवल्क्य, बाहुक आदि ऋषियों को अर्हत् ऋषि कहकर सम्मानित किया गया है। उत्तराध्ययन में भी कपिल, नमि, करकण्डु, नग्गति, गर्दभाली, संजय आदि का सम्मानपूर्वक स्मरण किया गया और सूत्रकृतांग में इनमें से कुछ को आचारभेद के बावजूद भी परम्परा - सम्मत माना गया । किन्तु ज्ञाताधर्मकथा में नारद की और भगवती के पन्द्रहवे शतक में मंखली गोशाल की समालोचना भी की गई इस आधार पर हम कह सकते है कि जैन परम्परा में अन्य परम्परा के प्रति उदारता का भाव कैसे परिवर्तित होता गया और साम्प्रदायिक अभिनिवेश कैसे दृढमूल होते गये, इसका यथार्थ चित्रण उनमें उपलब्ध हो जाता है । इसी प्रकार आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध, आचारसूत्र, दशवैकालिक, निशीथ आदि छेदसूत्र तथा उसके भाष्य और चूर्णियों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि जैनाचार में कालक्रम में क्या-क्या परिवर्तन हुआ है । इसी प्रकार ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, भगवती, ज्ञाताधर्म कथा आदि के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि पार्श्वपत्यों का महावीर के संघ पर क्या प्रभाव पड़ा और दोनों के बीच सम्बन्धों में कैसे परिवर्तन होता गया । इसी प्रकार के अनेक प्रश्न, जिनके कारण आज का जैन समाज साम्प्रदायिक कटघरों में बन्द है, अर्धमागधी आगमों के निष्पक्ष अध्ययन के माध्यम से सुलझाये जा सकते हैं । शौरसेनी आगमों में मात्र मूलाचार और भगवती आराधना को, जो अपनी विषय-वस्तु के लिये अर्धमागधी आगम - साहित्य के ऋणी हैं, इस कोटि में रखा जा सकता है, किन्तु शेष आगमतुल्य शौरसेनी ग्रन्थ जैनधर्म को सीमित घेरों में आबद्ध ही करते हैं । परम्पराओं के प्रभाव से बहुत कुछ ऐसी सामग्री भी है, जो उनकी अपनी I I Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520786
Book TitleSambodhi 2013 Vol 36
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2013
Total Pages328
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size7 MB
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