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सागरमल जैन
SAMBODHI
१८. गरुडोपपात १९. धरणोपपात २०. वैश्रमणोपपात २१. वेलन्धरोपपात २२. देवेन्द्रोपपात २३. उत्थानश्रुत २४. समुत्थानश्रुत २५. नागपरिज्ञापनिका २६. निरयावलिका २७. कल्पिका २८. कल्पावतंसिका २९. पुष्पिता ३०. पुष्पचूलिका ३१. वृष्णिदशा
१८. मण्डलप्रवेश १९. विद्याचरण विनिश्चय २०. गणिविद्या २१. ध्यानविभक्ति २२. मरणविभक्ति २३. आत्मविशोधि २४. वीतरागश्रुत २५. संलेखनाश्रुत २६. विहारकल्प २७. चरणविधि २८. आतुरप्रत्याख्यान २९. महाप्रत्याख्यान
इस प्रकार नन्दीसूत्र में १२ अंग, ६ आवश्यक, ३१ कालिक एवं २९ उत्कालिक सहित ७८ आगमों का उल्लेख मिलता है । ज्ञातव्य है कि आज इनमें से अनेक ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं। यापनीय और दिगम्बर परम्परा में आगमों का वर्गीकरण - .
यापनीय और दिगम्बर परम्पराओं में आगम-साहित्य के वर्गीकरण की जो शैली मान्य रही है, वह भी बहुत कुछ नन्दीसूत्र की शैली के ही अनुरूप है । उन्होंने उसे उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र से ग्रहण किया है । उसमें आगमों को अंग और अंगबाह्य ऐस दो वर्गों में विभाजित किया गया है । इनमें अंगों की बारह संख्या का स्पष्ट उल्लेख तो मिलता है, किन्तु अंगबाह्य की संख्या का स्पष्ट निर्देश नहीं है। मात्र यह कहा गया है कि अंगबाह्य अनेक प्रकार के हैं। किन्तु अपने तत्त्वार्थभाष्य (१/२०) में आचार्य उमास्वाति ने अंग-बाह्य के अन्तर्गत सर्वप्रथम सामायिक आदि छ: आवश्यकों का उल्लेख किया है उसके बाद दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, दशा, कल्प-व्यवहार, निशीथ और ऋषिभाषित के नाम देकर अन्त में आदि शब्द से अन्य ग्रन्थों का ग्रहण किया है । किन्तु अंगबाह्य में स्पष्ट नाम तो उन्होंने केवल बारह ही दिये हैं । इसमें कल्प-व्यवहार का एकीकरण किया गया है । एक अन्य सूचना से यह भी ज्ञात होता हे कि तत्त्वार्थभाष्य में उपांग संज्ञा का निर्देश है। हो सकता है कि पहले १२ अंगों के समान ही १२ उपांग माने जाते हों । तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार पूज्यपाद, अकलंक, विद्यानन्दी आदि दिगम्बर आचार्यों ने अंगबाह्य में न केवल उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि ग्रन्थों का उल्लेख किया है, अपितु कालिक एवं उत्कालिक ऐसे वर्गों का भी नाम निर्देश (१/२०) किया है। हरिवंशपुराण एवं धवलाटीका में आगमों का जो वर्गीकरण
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