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Vol. XXXVI, 2013
प्राकृत आगम साहित्य : एक विमर्श
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उपलब्ध होता है, उसमे १२ अंगों एवं १४ अंगबाह्यों का उल्लेख है, तत्पश्चात दशवैकालिक उत्तराध्ययन, कल्प-व्यवहार, कप्पाकप्पीय (कल्पिकाकल्पिक), महाकप्पीय (महाकल्प), पुण्डरीक, महापुण्डरीक व निशीथ का उल्लेख है । इस प्रकार धवला में १२ अंग और १४ अंगबाह्यों की गणना की गयी । इनमें भी कल्प और व्यवहार को एक ही ग्रन्थ माना गया है। ज्ञातव्य है कि तत्त्वार्थभाष्य की अपेक्षा इसमें कप्पाकप्पीय, महाकप्पीय, पुण्डरीक और महापुण्डरीक- ये चार नाम अधिक हैं। किन्तु भाष्य में उल्लिखित दशा और ऋषिभाषित को छोड़ दिया गया है। इसमें जो चार नाम अधिक हैं - उनमें कप्पाकप्पीय और महाकप्पीय का उल्लेख नन्दीसूत्र में भी है, मात्र पुण्डरीक और महापुण्डरीक ये दो नाम विशेष हैं ।
दिगम्बर परम्परा में आचार्य शुभचन्द्र कृत अंगप्रज्ञप्ति (अंगपण्णति) नामक एक ग्रन्थ मिलता है। यह ग्रन्थ धवलाटीका के पश्चात् का प्रतीत होता है । इसमें धवलाटीका में वर्णित १२ अंगप्रविष्ट व १४ अंगबाह्य ग्रन्थों की विषय-वस्त का विवरण संक्षिप्त ही है। इस ग्रन्थ में और दिगम्बर परम्परा के अन्य ग्रन्थों में अंगबाह्यों को प्रकीर्णक भी कहा गया है (३.१०)। इसमें कहा गया है कि सामायिक प्रमख १४ प्रकीर्णक अंगबाह्य हैं । इसमें दिये गये विषय-वस्तु का विवरण से लगता है कि यह विवरण मात्र अनुश्रुति के आधार पर लिखा गया है, मूल ग्रन्थों को लेखक ने नहीं देखा है। इसमें भी पुण्डरीक और महापुण्डरीक का उल्लेख है । इन दोनों ग्रन्थों का उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा में मुझे कहीं नहीं मिला । यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा के सूत्रकृतांग में एक अध्ययन का नाम पुण्डरीक अवश्य मिलता है। प्रकीर्णकों में एक सारावली प्रकीर्णक है। इसमें पुण्डरीक महातीर्थ (शत्रुजय) की महत्ता का विस्तृत विवरण है। सम्भव है कि पुण्डरीक सारावली प्रकीर्णक का ही यह दूसरा नाम हो । फिर भी स्पष्ट प्रमाण के अभाव में इस सम्बन्ध में अधिक कुछ कहना उचित नहीं होगा।
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रथम शती से लेकर दसवीं शती तक आगमों को नन्दीसूत्र की शैली में अंग और अंगबाह्य – पुनः अंगबाह्यों को आवश्यक और आवश्यक-व्यतिरिक्त, ऐसे दो विभागों में बांटा जाता था । आवश्यक-व्यतिरिक्त में भी कालिक और उत्कालिक ऐसे दो विभाग सर्वमान्य छ । लगभग ग्यारहवीं-बारहवीं शती के बाद से अंग, उपांग, प्रकीर्णक, छेद, मूल और चूलिकासूत्र - यह वर्तमान वर्गीकरण अस्तित्व में आया है । ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं में सभी अंगबाह्य आगमों के लिए प्रकीर्णक (पइण्णय) नाम भी प्रचलित रहा है । आगम-साहित्य की प्राचीनता एवं रचनाकाल
भारत जैसे विशाल देश में अतिप्राचीनकाल से ही अनेक बोलियों का अस्तित्व रहा है, किन्तु साहित्यिक दृष्टि से भारत में तीन प्राचीन भाषाएँ प्रचलित रही हैं - संस्कृत, प्राकृत और पालि । इनमें संस्कृत के दो रूप पाये जाते हैं - छान्दस् और साहित्यिक संस्कृत । वेद छान्दस् संस्कृत में हैं, जो पालि
और प्राकृत के निकट है। उपनिषदों की भाषा छान्दस् की अपेक्षा साहित्यिक संस्कृत के अधिक निकट है । प्राकृत भाषा में निबद्ध जो साहित्य उपलब्ध है, उसमें आगम साहित्य प्राचीनतम है। यहाँ तक कि आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध और ऋषिभाषित तो अशोककालीन प्राकृत अभिलेखों से भी प्राचीन है . ये दोनों ग्रन्थ लगभग ई.पू. पांचवी-चौथी शताब्दी की रचनाएँ हैं । आचारांग की सूत्रात्मक औपनिषदिक
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