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________________ 96 सागरमल जैन SAMBODHI किसी पैगम्बर के माध्यम से दिया गया ईश्वर का सन्देश न होकर, वे उन अर्हतों व ऋषियों की वाणी का संकलन है, जिन्होंने अपनी ज्ञान को प्रामाणिकता से प्रस्तुत किया है । श्वेताम्बर मान्य इन आगमों की सबसे बड़ी विशेषता यहा है कि ये ई.पू. पाँचवी शती से लेकर ईसा की पाँचवी शती अर्थात लगभग एक हजार वर्ष में जैन संघ के चढ़ाव-उतार की एक प्रामाणिक कहानी कह देते हैं । आगमों का महत्त्व एवं प्रामाणिकता प्रत्येक धर्म-परम्परा में धर्म-ग्रन्थ या शास्त्र का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है, क्योंकि उस धर्म के दार्शनिक सिद्धान्त और आचार व्यवस्था दोनों के लिए वे 'शास्त्र' ही एकमात्र प्रमाण होते हैं। हिन्दूधर्म में वेद का, बौद्धधर्म में त्रिपिटक का, पारसीधर्म में अवेस्ता का, ईसाईधर्म में बाइबिल का और इस्लामधर्म में कुरान का जो स्थान है, वही स्थान जैनधर्म में आगम साहित्य का है। फिर भी आगम साहित्य को न तो वेद के समान अपौरुषेय माना गया है और न बाइबिल या कुरान के समान किसी पैगम्बर के.माध्यम सं दिया गया ईश्वर का सन्देश ही, अपितु वह उन अर्हतों व ऋषियों की वाणी का संकलन है, जिन्होंने अपनी तपस्या और ज्ञान के द्वारा सत्य का प्रकाश प्राप्त किया था । जैनों के लिए आगम जिनवाणी है, आप्तवचन है, उनके धर्म-दर्शन और साधना का आधार है। यद्यपि वर्तमान में जैनधर्म का दिगम्बर सम्प्रदाय उपलब्ध आगमों को प्रमाणभूत नहीं मानता है, क्योंकि उसकी दृष्टि से इन आगमों में कुछ ऐसा प्रक्षिप्त अंश है, जो उनकी मान्यताओं के विपरीत है। मेरी दृष्टि में चाहे वर्तमान में उपलब्ध आगमों में कुछ प्रक्षिप्त अंश हो या उनमें कुछ परिवर्तन-परिवर्धन भी हुआ हो, फिर भी वे जैनधर्म के प्रामाणिक दस्तावेज हैं । उनमें अनेक ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध हैं । उनकी पूर्णत: अस्वीकृति का अर्थ अपनी प्रामाणिकता को ही नकारना है । श्वेताम्बर मान्य इन आगमों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये ई.पू. पाँचवी शती से लेकर ईसा की पांचवी शती अर्थात लगभग एक हजार वर्ष में जैन संघ के चढ़ाव-उतार की एक प्रामाणिक कहानी कह देते हैं। आगमों का वर्गीकरण वर्तमान में जो आगम ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उन्हें निम्न रूप में वर्गीकृत किया जाता है - ११ अंग १. आयार (आचारांगः), २. सूयगड (सूत्रकृतांगः), ३. ठाण (स्थानांग:), ४. समवाय (समवायांग:), ५. वियाहपन्नति (व्याख्याप्रज्ञप्ति: या भगवती), ६. नायाधम्मकहाओ (ज्ञाताधर्मकथाः), ७. उवासगदसाओ (उपासकदशाः), ८. अंतगडदसाओ (अन्तकृद्दशाः), ९. अनुत्तरोववाइयदसाऔ (अनुत्तरौपपातिकदशा:), १०. पण्हावागरणाई (प्रश्नव्याकरणानि), ११. विवागसुयं (विपाकश्रुतम), १२. दृष्टिवादः (दिट्ठिवाय), जो विच्छिन्न हुआ है। १२ उपांग १. उववाइयं (औपपातिकं), २. रायपसेणइज (राजप्रसेनजित्कं) अथवा रायपसेणियं (राजप्रश्नीय), Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520786
Book TitleSambodhi 2013 Vol 36
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2013
Total Pages328
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size7 MB
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