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Vol. XXXVI, 2013
प्राकृत आगम साहित्य : एक विमर्श
जहाँ तक उपनिषदों का प्रश्न है उपनिषदों के अनेक अंश आचारांग, इसि भासियाई आदि प्राचीन आगम - साहित्य में भी यथावत उपलब्ध होते हैं । याज्ञवल्क्य, नारद, कपिल, असितदेवल, अरुण, उद्दालक, पाराशर आदि अनेक औपनिषदिक ऋषियों के उल्लेख एवं उपदेश इसिभासियाई, आचारांग, सूत्रकृतांग एवं उत्तराध्ययन में उपलब्ध हैं । इसिभासियाई में याज्ञवल्क्य का उपदेश उसी रूप में वर्णित है, जैसा वह उपनिषदों में मिलता है । उत्तराध्ययन के अनेक आख्यान, उपदेश एवं कथाएँ मात्र नाम-भेद के साथ महाभारत में भी उपलब्ध हैं । प्रस्तुत प्रसंग में विस्तारभय से वह सब तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत करना सम्भव नहीं है। जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन खण्ड - १ एवं २ देखने की अनुशंसा के साथ इस चर्चा को यहीं विराम देता हूँ ।
पालित्रिपिटक और प्राकृत आगम साहित्य
पालित्रिपिटक और जैनागम अपने उद्भव - स्रोत की अपेक्षा से समकालिक कहे जा सकते हैं, क्योंकि पालित्रिपिटक के प्रवक्ता भगवान् बुद्ध और जैनागमों के प्रवक्ता भगवान् महावीर समकालिक ही हैं। इसलिए दोनों के प्रारम्भिक ग्रन्थों का रचनाकाल भी समसामायिक है । दूसरे जैन - परम्परा और बौद्धपरम्परा दोनों ही भारतीय संस्कृति की श्रमणधारा की अंग हैं अतः दोनों की मूलभूत जीवन-दृष्टि एक ही है । इस तथ्य की पुष्टि जैनागमों और पालित्रिपिटक के तुलनात्मक अध्ययन से हो जाती है। दोनों परम्पराओं में समान रूप से निवृत्तिपरक जीवन - दृष्टि को अपनाया गया है और सदाचार एवं नैतिकता की प्रस्थापना के प्रयत्न किये गये हैं, अतः विषय-वस्तु की दृष्टि से भी दोनों ही परम्पराओं के साहित्य में समानता है । उत्तराध्ययन, दशवैकालिक एवं कुछ प्रकीर्णकों की अनेक गाथाएँ, सुत्तनिपात, धम्मपद आदि में मिल जाती हैं । किन्तु जहाँ तक दोनों के दर्शन एवं आचार नियमों का प्रश्न है, वहाँ अन्तर भी देखा जाता है । क्योंकि जहाँ भगवान् बुद्ध आचार के क्षेत्र में मध्यममार्गी थे, वहाँ महावीर तप, त्याग और तीतीक्षा पर अधिक बल दे रहे थे । इस प्रकार आचार के क्षेत्र में दोनों की दृष्टियाँ भिन्न थीं । यद्यपि विचार के क्षेत्र में महावीर और बुद्ध दोनों ही एकान्तवाद के समलोचक थे, किन्तु जहाँ बुद्ध ने एकान्तवादों को केवल नकारा, वहाँ महावीर ने उन एकान्तवादों का समन्वय किया । अतः दर्शन के क्षेत्र में बुद्ध की दृष्टि नकारात्मक रही है, जबकि महावीर की सकारात्मक । इस दर्शन और आचार के क्षेत्र में दोनों में जो भिन्नता थी, वह उनके साहित्य में भी अभिव्यक्त हुई है। फिर भी सामान्य पाठक की अपेक्षा से दोनों परम्परा के ग्रन्थों में क्षणिकवाद, अनात्मवाद आदि दार्शनिक प्रस्थानों को छोड़कर एकता ही अधिक परिलक्षित होती है ।
आगमों का महत्त्व एवं प्रामाणिकता
प्रत्येक धर्म-परम्परा में धर्म-ग्रन्थ या शास्त्र का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है, क्योंकि उस धर्म के दार्शनिक सिद्धान्त और आचार व्यवस्था दोनों के लिए 'शास्त्र' ही एकमात्र प्रमाण होता है । हिन्दूधर्म में वेद का, बौद्धधर्म में त्रिपिटक का, पारसी धर्म में अवेस्ता का, ईसाईधर्म में बाइबिल का और इस्लामधर्म कुरान का जो स्थान है, वही स्थान जैनधर्म में आगम साहित्य का है । फिर भी वे कुरान के समान
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