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सागरमल जैन
पर उनके प्रमुख शिष्यों के द्वारा शब्द-रूप में दृष्टि से समरूपता के आधार पर यह भी स्वीकार करते हैं कि अर्थ - रूप से जिनवाणी सदैव थी और सदैव रहेगी । वह कभी भी नष्ट नहीं होती है । विचार की अपेक्षा से आगमों की शाश्वतता और नित्यता मान्य करते हुए भी जैन परम्परा उन्हें शब्द रूप सृष्ट और विच्छिन्न होने वाला भी मानती । अनेकान्त की भाषा में कहें तो तीर्थंकर की अनवरत परम्परा की दृष्टि आगम शाश्वत और नित्य हैं, जबकि तीर्थंकर - विशेष के शासन की अपेक्षा से वे सृष्ट एवं अनित्य हैं ।
SAMBODHI
वैदिक साहित्य और जैनागमों में दूसरा महत्वपूर्ण अन्तर यह है कि वेदों के अध्ययन में सदैव ही शब्द - रूप को महत्व दिया गया और यह माना गया कि शब्द-रूप में कोई परिवर्तन नहीं होना चाहिए, उसका अर्थ स्पष्ट हो या न हो। इसके विपरीत जैन परम्परा में तीर्थंकरों को अर्थ का प्रवक्ता माना गया और इसलिए इस बात पर बल दिया गया कि चाहे आगमों में शब्द-रूप में भिन्नता हो जाये किन्तु उनमें अर्थ-भेद नहीं होना चाहिए । यही कारण था कि शब्द - रूप की इस उपेक्षा के कारण परवर्तीकाल में आगमों में अनेक भाषिक परिवर्तन हुए और आगम पाठों की एकरूपता नहीं रह सकी । यद्यपि विभिन्न संगीतियों के माध्यम से एकरूपता बनाने का प्रयास हुआ, लेकिन उसमें पूर्ण सफलता नहीं मिल सकी । यद्यपि वह शब्द-रूप परिवर्तन भी आगे निर्बाध रूप से न चले, इसलिए एक ओर उन्हें लिपिबद्ध करने का प्रयास हुआ तो दूसरी ओर आगमों में पद, अक्षर, अनुस्वार आदि में परिवर्तन करना भी महापाप बताया गया । इस प्रकार यद्यपि आगमों के भाषागत स्वरूप को स्थिरता तो प्रदान की गयी, फिर भी शब्द की अपेक्षा अर्थ पर अधिक बल दिये जाने के कारण जैनागमों का स्वरूप पूर्णतया अपरिवर्तित नहीं रह सका, जबकि वेद शब्द-रूप में अपरिवर्तित रहे । आज भी उनमें अनेक ऋचायें हैं - जिनका कोई अर्थ नहीं निकलता है । (अनर्थकाः हि वेद - मन्त्राः) । इस प्रकार वेद शब्द- प्रधान हैं जबकि जैन आगम अर्थ - प्रधान है ।
वेद और जैनागमों में तीसरी भिन्नता उनकी विषय-वस्तु की अपेक्षा से भी है । वेदों में भौतिक उपलब्धियों हेतु प्राकृतिक शक्तियों के प्रति प्रार्थनाएं ही प्रधान रूप से देखी जाती हैं साथ ही कुछ खगोलभूगोल सम्बन्धी विवरण और कथाएं भी हैं। जबकि जैन आगम साहित्य में आध्यात्मिक एवं वैराग्यपरक उपदेशों के द्वारा मन, इन्द्रिय और वासनाओं पर विजय पाने के निर्देश दिये गये हैं। इसके साथ-साथ उसमें मुनि एवं गृहस्थ के आचार सम्बन्धी विधि-निषेध प्रमुखता से वर्णित है तथा तप-साधना और कर्मफल विषयक कुछ कथाएँ भी हैं । खगोल- भूगोल समबन्धी चर्चा भी जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थों में है । जहाँ तक जैनदर्शन का प्रश्न है उसका प्रारम्भिक रूप ही आगमों में उपलब्ध होता है ।
वैदिक साहित्य में वेदों के पश्चात् क्रमशः ब्राह्मण-ग्रन्थों, आरण्यकों और उपनिषदों का क्रम आता
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है । इनमें ब्राह्मण ग्रन्थ मुख्यतः यज्ञ-याग सम्बन्धी कर्मकाण्डों का विवरण प्रस्तुत करते हैं । अत: उनकी शैली और विषय-वस्तु दोनों ही आगम-साहित्य से भिन्न है । आरण्यकों के सम्बन्ध में मैं अभी तक सम्यक् अध्ययन नहीं कर पाया हूँ अतः उनसे आगम साहित्य की तुलना कर पाना मेरे लिये संभव नहीं है । किन्तु आरण्यकों में वैराग्य, निवृत्ति एवं वानप्रस्थ जीवन के अनेक तथ्यों के उल्लेख होने से विशेष तुलनात्मक अध्ययन के द्वारा उनमें और जैन आगमों में निहित समरूपता को खोजा जा सकता है ।
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